दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग/बारहवां परिच्छेद
इसी औसर पर बिमला ने आकर बाहर से द्वार खटखटाया। द्वार का शब्द सुनतेही दिग्गज का मुंह सूख गया और आसमानी ने कहा क्या हुआ? बिमला आती है छिप रहो छिप रहो।
ब्राह्मण देवता झट उठ खड़े हुए और घबरा कर कहने लगे "कहां छिपूं?"
आसमानी ने कहा देखो उस कोने में बड़ा अंधेरा है एक काली हांड़ी सिर पर रख के वहीं छिप रहो, अंधेरे में कुछ जान न पड़ैगा। दिग्गज ने वैसाही किया और आसमानी के बुद्धि को सराहने लगे किन्तु दुर्भाग्य वश एक अरहर की दाल की हांडी हाथ आई, ज्योंही उस को माथे पर औंधाया कि सब दाल वह कर नाक मुंह और संपूर्ण शरीर पर फैल गई। इतने से विमला ने भीतर आकर दिग्गज की यह दशा देखी। दिग्गज उसको देखतेही उठ खड़े हुए बिमला के मनमें दया आई और कहने लगी कि "बैठे रहो महाराज बैठे रहो" यदि तुम यह सब दाल पोंछ के खा जाओ तौ भी हम किसीसे न कहैंगी।
ब्राह्मण के जी में जी आया और फिर खाने को बैठ गये। मनमें तो आया कि शरीर की दाल भी पोंछके खा जांय परन्तु बन न पड़ा। आसमानी के निमित्त जो भात साना था वह सब खा गए पर अरहर की दाल का मनमें सोंच बनाही रहा।
जब खा पी चुके आसमानी ने स्नान कराया और मन स्थिर हुआ तो विमला ने कहा "रसिकदास एक बात है।" रसिकदास ने पूछा, क्या बात है?
वि०| तुम हम लोगों को चाहते हो नहीं?
दि०| कैसा कुछ।
वि०| दोनों जनी को?
दि०| हां दोनों को।
वि०| जो हम कहैं सो करोगे?
दि०| हां।
वि०| अभी?
दि०| हां अभी।
वि०| इसी घड़ी?
दि०| इसी घड़ी।
वि०| हम लोग यहां क्यों आई हैं जानते हो।
दि०| नहीं।
आसमानी ने कहा 'आज हम तुम्हारे संग भाग चलेंगी।" दिग्गज मुंह देखने लगा और बोला हां!
"विमला ने हंसी रोक के कहा बोलते क्यों नहीं?"
आं आं आं आं, तो तो तो कह कर दिग्गज रह गया किन्तु मुंह से शब्द नहीं निकला।
विमला ने कहा "तो क्या तुम न चलोगे"
आं आं आं तो अच्छा स्वामी से पूछ आऊं। बि०| स्वामी से क्या पूछोगे? क्या गवना ब्याह है जो उनसे साइत पूछोगे?
दि०| अच्छा तो न जाऊंगा। तो कब चलना होगा?
बि०| कब? अभी देखते नहीं कि मैं सब ले देके आई हूं।
दि०| अभी?
वि०| नहीं तो कब? जो तुम न चलो तो हम किसी और को ढूढ़ें।
गजपति को फिर और कुछ न सूझी और बोले अच्छा चलो।
बिमला ने कहा अच्छा चदरा लेलेओ।
दिग्गज ने रामनामी अगौंछा ओढ़लिया और बिमला के पीछे हो लिए और उसे पुकार कर पूछने लगे कि लौटेगी कब?
बिमला ने कहा क्या लौटने ही को चलती हूं।
दिग्गज हंसने लगे और बोले कि बर्तन जो हमारे छूट जांंयगे।
बिमला ने कहा कुछ चिन्ता नहीं मैं तुम को नए ले दूंगी।
ब्राह्मण का जी उदास होगया परन्तु क्या करे अबला तो बड़ी प्रबला होती हैं। फिर बोले कि हमारी, "कगदहीं" जो रही जाती है!
बिमला ने कहा अच्छा शीध्र ले भी लेओ।
विद्यादिग्गज के गातेमें दो पोथी थीं एक व्याकरण और एक स्मृति, व्याकरणको हाथमें लेकर बोले कि इसका तो कुछ काम नहीं है, क्योंकि यह तो मेरे कण्ठाग्र है और केवल स्मृति को गाते में रख लिया, और श्रीदुर्गा कह कर आसमानी भी बिमलाके साथ चली। थोड़ी दूर चल कर बोली कि तुम सब चलो मैं पीछे से आती हूं और आप घर चली गई। बिमला और गजपति साथ चले, दुर्ग से बाहर कुछ दूर जाकर दिग्गज ने कहा कि आसमानी नहीं आई?
विमला नें उत्तर दिया न आई होगी-क्या करना है।
रसिकदास चुप रहे, फिर कुछ काल में ठंढी सांस लेकर बोले बर्तन रह गया।
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