दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग/तेरहवां परिच्छेद

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तेरहवां परिच्छेद।
दिगज का साहस।

चलते २ मान्दारणगढ़ धाम पार होगया रात अंधेरी बड़ी थी केवल नक्षत्रों के प्रकाश से कुछ कुछ मार्ग सूझता था मैदान में पहुंचकर विमला के मन में शंका हुई किन्तु दोनों सन्नाटे में चले जाते थे। बिमला ने गजपति को पुकार के कहा?

रसिकदास० | क्या सोचते हो?

रसिकदास ने कहा कि मैं बर्तनों का ध्यान कर रहा हूं। बिमला सुनकर मुंह पर कपड़ा देके हंसने लगी और फिर बोली कि क्यों दिग्गज तुम भूत से डरते हो कि नहीं? दिग्गज ने कहा राम राम कहो, राम राम, और सरक कर बिमला के समीप चले आये।

बिमला ने कहा, यहां तो भूत बहुत हैं। इतना सुनकर दिग्गज ने झपट कर बिमला का वस्त्र पकड़ लिया। [ ४९ ] फिर बिमला कहने लगी कि मैं उस दिन शैलेश्वर के दर्शन से लौटी आती थी मार्ग में उस बट के नीचे एक बढ़ी भारी मूर्ति देख पड़ी थी, इतने में जो दिग्गज की ओर दृष्टि पड़ी तो उसने देखा कि ब्राह्मण मारे डर के कांप रहा है, विशेष वार्ता से उसको शक्ति हीन होने के भय से बिमला ने बात टाल दी और कहने लगी "रसिकदास तुम गाना जानते हो?"

दिग्गज ने कहा, हां जानता क्यों नहीं।

तब बिमला ने कहा, अच्छा गाओ तो सही।

दिग्गज ने आरम्भ किया।

ए-हुम ऊं–"सखी री श्याम कदम्ब की डाल।"

मार्ग में एक गाय पड़ी खर्राटा ले रही थी इस अलोकिक राग को सुनकर भागी। रसिक गाने लगे।

"मोर पच्छ सिर सुमग बिराजै कर मुर्ली उर माल।

हँसि हँसि बात करत यदुनन्दन गिरवरधर गोपाल ॥१॥

ठाढ़ डगर अति रगर करत है रोकत सब बृज बाल।

गगरी फोरि नित चुनरी बिगारत करत अनेक कुचाल ॥२॥

इतने में मधुर संगीत ध्वनि सुनकर दिग्गज का राग बन्द होगया, बिमला गाने लगी उस सूनसान मैदान में रात्रि के समय जो उस कोकिल कण्ठी ने टीप ली शीतल समीर ने झट पट उसको इन्द्र के अखाड़े तक पहुंचा दिया और अप्सरा सब कान लगा कर सुनने लगीं दिग्गज का भी कान वहीं था जब वह गा चुकी रसिकदास ने कहा और-

बि०| और क्या?

दि०| एक और गाओ।

बि०| अब क्या गाऊं। [ ५० ]दि०| एक बिहाग गाओ?

बिमला ने कहा अच्छा गाती हूं और गाने लगी।

"ठाढ़े रहो बांके यार गगरिया मैं घर धर आऊं। गगरी मैं धरि आऊं चुनरी पहिर आऊं करि आऊं सोरहो सिंगार ॥१॥

गाते २ बिमला को मालूम हुआ कि कोई पीछे से कपड़ा खींचता है, पीछे फिर कर देखा तो दिग्गज उसका अंचल पकड़े उससे सट के चला आता है, बिमला ने कहा क्यो क्या फिर भूत आया क्या?

ब्राह्मण के मुंह से बात न निकली केवल उंगली के संकेत से दिखलाया कि 'वह।' बिमला सन्नाटे में आकर उसी ओर देखने लगी और खर्राटे का शब्द उसके कान में पड़ा और पथ के एक ओर कोई पदार्थ भी देख पड़ा। साहस पूव्वर्क उसके समीप जाकर देखा कि एक सुन्दर कसा कसाया घोड़ा मृत्यु से झगड़ रहा है। बिमला आगे बढ़ी और उस सैनिक अश्व के क्लेशकर अवस्था पर सोच करने लगी और कुछ काल पर्य्यन्त चुपचाप रही। जब आध कोस निकल गए तो दिग्गज ने फिर बिमला का अंचल पकड़ कर खींचा?'

बिमला ने कहा कौन।

गजपति ने एक वस्तु उठाकर देखाया, बिमला ने देखकर कहा यह किसी सिपाही की पगड़ी है और फिर सोचने लगी कि जिसका घोड़ा था, जान पड़ता है कि यह पगड़ी भी उसी की है। नहीं तो यह किसी पदचारी की पगड़ी जान पड़ती है! [ ५१ ]इतने में चन्द्रमा का उदय हुआ, बिमला और घबराई—

किञ्चित काल के अनन्तर दिग्गजने "पूछा प्यारी बोलती क्यों नहीं?"

बिमला ने कहा मार्ग में कुछ चिन्ह देखते हैं।

दिग्गज ने भली भांति इधर उधर देख कर कहा बहुत से घोड़ों के पैर के चिन्ह देख पड़ते हैं!

बि०| वाह कुछ समझे भी?

दि०| समझे तो कुछ नहीं।

बि०| वहां एक मरा हुआ घोड़ा, यहां सिपाही की पगड़ी और पृथ्वी तल में घोड़ों के पदचिन्ह इतने पर भी तुम्हारे कुछ समझ में नहीं आया! कोई मरा अवश्य है।

दि०| क्या?

बि०| अभी इधर से कोई सेना गई है।

गजपति ने डर के कहा तो धीरे २ चलो जिसमें वे सब आगे बढ़ जांय।

बिमला हंसकर कहने लगी कि तुम बड़े मूर्ख हो। क्या वे आगे गए हैं? देखो तो घोड़ों की टाप का मुंह किधर हैं? यह सेना मान्दारणगढ़ को गई है।

थोड़ी देर में शैलेश्वर के मन्दिर की ध्वजा देख पड़ी। बिमला ने मन में कहा कि राजपूत और ब्राह्मण से साक्षात होना अच्छा नहीं क्योंकि कुछ अनिष्ट हो तो आश्चर्य्य नहीं अतएव इसको यहां से हटाना उचित है।

दिग्गज ने फिर आकर बिमला के आंचल को पकड़ा।

बिमला ने पूछा अब क्या हुआ?

ब्राह्मण ने पूछा 'अब कितनी दूर और है?' [ ५२ ]बि०| क्या कितनी दूर है?

दि०| वही वट वृक्ष!

बि०| कौन वट वृक्ष?

दि०| जहां तुम लोगों ने उसे देखा था।

बि०| क्या देखा था!

दि०| अरे रात को उस का नाम लेना न चाहिये।

बिमला समझ गई और औसर पाय बोली "ईह"

ब्राह्मण और डर गया बोला "क्या है।"

विमला घबरा कर शैलेश्वर के मन्दिर के समीपवर्ती वट वृक्ष की ओर उँगली दिखा कर बोली "देखो वही वठ का पेड़ है।"

दिग्गज से आगे न बढ़ा गया और मारे डर के पत्ते की भांति कांपने लगा।

बिमला ने कहा "आओ।"

ब्राह्मण ने कांपते २ उत्तर दिया कि मैं आगे नहीं जा सक्ता—

बिमला ने कहा कि मैं भी डरती हूं।

इतना सुनतेही ब्राह्मण चट लौट खड़ा हुआ और भागने की इच्छा करने लगा।

बिमला ने वृक्ष की ओर देखा कि उसके नीचे कोइ बस्तु पड़ी है। मन में जाना कि महादेव का नन्दी है किन्तु गजपति से कहा! गजपति! ईश्वर का ध्यान करो। देखो वृक्ष के नीचे कुछ जान पड़ता है?

"अरे बापरे" कह कर दिग्गज चम्पत हुए और लंबे २ डगों से झट पट आध कोस निकल गये।

बिमला तो उस के स्वभाव को भली भांति जानती थी। [ ५३ ] कि वह दुर्ग के द्वार पर जा कर सास लगा अतएव कुछ चिन्ता न कर मन्दिर की ओर चली।

चारो ओर देखती थी किन्तु राजपुत्र का कोई चिन्ह नहीं दीखता था और मन में कहने लगी कि उन्होंने तो कोई संकेत भी नहीं बताया था अब उन को कहां ढूढूं। यदि न मिले तो व्यर्थ क्लेश हुआ। ब्राह्मण को भी मैंने भगा दिया अब अकेली फिर कर कैसे जाउंगी। शैलेश्वर! तूही रक्षक है।

बट के पेड़ के नीचे से मन्दिर में जाने की राह थी। जब बिमला वहां पहुंची और सांड न देख पड़ा तो घबराई और स्वेत बस्तु भी जो दूर से झलकती थी गुप्त हो गई। मैदान में भी तो सांड़ कहीं नहीं देख पड़ा था!

अन्त को वृक्ष के पीछे एक मनुष्य का बस्त्र दृष्टिगोचर हुआ। बिमला मन में डरी और मन्दिर की ओर चली और सीढ़ी पर चढ़ के केवाड़ को ढकेला किंतु वह बन्द था। भीतर से शब्द हुआ "कौन!" विमला ने साहस पूर्वक धीर धारण कर के कहा मैं एक स्त्री हूं, यहां विश्राम करने को आई हूं।

केवाड़ खुल गया, देखा कि मन्दिर में दिया जलता है और सामने ढाल तलवार बांधे एक मनुष्य खड़ा है।

कुमार जगतसिंह पहिले से आकर बिमला की राह देख रहे थे।

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