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दृश्य-दर्शन/चिदम्बर

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दृश्य-दर्शन
महावीर प्रसाद द्विवेदी

कलकत्ता: सुलभ ग्रंथ प्रचारक मंडल, पृष्ठ ८३ से – ८७ तक

 

चिदम्बर

चिदम्बर मदरास से १९१ मील है। वह एक छोटा सा कसबा है। उसकी आबादी कुल २०,००० है। परन्तु उसमें हिन्दुओंके दो एक बहुत प्राचीन मन्दिर हैं, इसीलिए उसका बड़ा महात्म्य है। जो लोग रामेश्वर के दर्शन को जाते हैं वे चिदम्बर और कुम्भ कोण के प्रसिद्ध मन्दिरों को देखे बिना नहीं लौटते।

फ़रगुसन साहब का मत है कि चिदम्बर के मन्दिर दक्षिणी हिन्दुस्तान में बहुत पुराने हैं। उनका कोई कोई भाग इतना सुन्दर और इतना मनमोहक है कि उसमें कलाकौशल की चरम सीमा पाई जाती है। पुरातत्व के जानने वाले कहते हैं कि प्राचीन चोल-राज्य की सीमा दक्षिण की तरफ़ चिदम्बर तक थी। इस राज्य की समय समय पर कई राजधानियाँ नियत हुई थीं। इसकी पहली राजधानी कावेरी नदी के तट पर ऊरीउर में थी; फिर कुम्भकोण में हुई और अन्त में तञ्जापुर अर्थात् तञ्जोर में।
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चिदस्जद में सबसे बड़ा और सबसे प्रसिद्ध मन्दिर महादेव का है। विद्वानों का कथन है कि उसे राजा हिरण्यवर्ण चक्रवर्ती ते बनवाया था। यह राजा श्वेतकुष्ट से पीड़ित था, इसी लिए लोग उसे श्वेतवर्मा कह कर पुकारते थे । वह एक बार देवदर्शन के लिए दक्षिण की ओर माया। यात्रा करते करते जब वह चिदम्बर में पहुंचा और वहाँ के तालाब में उसने स्नान किया तब उसका कुष्ट नहाने के साथ हो नाश हो गया। अतएव उसने वहीं पर विशाल शिव मन्दिर निर्माण कराया। किसी किलीका मत है कि राजा हिरण्यवर्ण ने इस मन्दिर को बनवाया वहीं;किन्तु कुष्ट से छुटकारा पाने पर उसने केवल उसकी मरस्वत बार उनके आकार-प्रकार की विशेष भव्य कर दिया।

परन्तु इस मन्दिर के विषय में एक दूसरे मार्ग से एक दूसरे ही प्रकार की बात निदित हुई है। मेकजी नाम के एक साहब ने दक्षिण में प्रचलित पुस्तकें बहुत खोज से एकत्र की हैं। उनमें से एक हाथ की लिखी हुई पुस्तक से सूचित होता है कि ९२७ से ९७७ ईसवी के बीच चोल देश में वीर नाम का एक राजा हुआ। उसने एक वार समुद्र के किनारे शङ्कर को पार्वती के साथ ताण्डव-नृत्य करते देखा। इस उपलक्ष्य में कनक-सभा के नाम का यह सुवर्ण मन्दिर उसने बनवाया और उसमें जो शिव की मूर्ति स्थापित की उसका नाम उसने नटेश्वर रक्खा। चाहे जिसने, चाहे जब,और चाहे जिस निमित्त इस मन्दिर को बनवाया हो, यह दर्शनीय अवश्य है । इसीलिए दूर दूर से लेग वहां दर्शनों के लिए आते हैं।

इस मन्दिर के चारों ओर ऊँची उंची दो दीवारें हैं। मन्दिर का
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कुल क्षेत्रफल ३२ एकड़ है। बाहरी दीवार उतर दाहल १८०० सुट लम्बी और पूर्व पश्चिम १४८० फुट लम्बो है: इस ३२ एकड़ भूमि के बीच में एक बहुत ही सुन्दर तालाब है। वह ३१५ फुट लम्बा और १८.फुट चौड़ा है। उसके चारों किनारों पर चार बड़े बड़े गोपुर हैं। जो गोपुर उत्तर और दक्षिण की ओर है मामा १६०फुट ऊपर आकाश में चले गये हैं।

तालाब के पास एक बहुत विस्तृत दीवानखाना है। वह ३४० फुट लम्बा और १९० फुट चौड़ा है। पहले उनने १००० खम्बे थे। परन्तु फरगुसन साहब के गिनने पर वे ९८४ हो निलके । शायद १६ खम्भे गिर गये हैं। यह एक आश्चर्यकारक स्थान है। क्याकि १००० खम्भे के नाम से प्रसिद्ध होने वाले जितले स्थान इस देश में हैं,उनमें से एक में भी इतने खम्भ नहीं पाये जाते जितने चिदम्बर में हैं ।

यहीं पर पार्वती का एक मन्दिर है। इस मन्दिर के अग्रभाग में बहुत बड़ी कारीगरी की गई है। उसे देखकर चित को अलौकिक आनन्द होता है।

पार्वती के मन्दिर से मिला हुआ एक और मन्दिर है। वह सुब- ह्मण्य के नाम से प्रसिद्ध है। उसके घेरे का परिमाण २५०×३०५ फुट है। मन्दिर के सामने एक मोर और दो हाथियों की विशाल मूर्तियां हैं। उनके आगे एक वरांडा है। उसमें जम्ने हैं। उनपर जो

काम है वह वर्णन से बाहर है। फग्गुसन साहब का मत है कि यह मन्दिर ईसा की सतरहवीं शताब्दी का है। इस मन्दिर के घेरे के
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एक कोने में गणेश का एक मन्दिर है। सुब्रह्मण्य मन्दिर के होते में कई छोटे छोटे मण्डप हैं। उनमें भिन्न भिन्न देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं।

शङ्कर का प्रधान मन्दिर तालाब से ३० गज़ दक्षिण की ओर है। पार्वती का मन्दिर दक्षिण-पश्चिम की ओर है । शङ्कर की मूर्ति दिगम्बर है। वह चतुर्भुजी है। भुजायें ऊपर को उठी हैं । दाहना पैर पृथ्वी पर रक्खा है;और बायां एक तरफ ऊपर को उठा है । मन्दिर की छत सुनहले गिलट किये हुए तांबे की चादर से मढ़ी हुई है। फरगुसन साहब कहते हैं कि यहां पर हिन्दुस्तान की एक बहुत ही प्राचीन और बहुत ही सुन्दर कारीगरी का नमूना है। वह एक छोटा सा मण्डप है जिसके अप्रभाग को ६ फुट ऊँचे दो खम्मे थामे हैं। इस मण्डप में कई मूर्तियां नृत्य करती हुई दीख पड़ती हैं। वे इतनी भव्य और ऐसी सुपर हैं कि दक्षिणी हिन्दुस्तान में उनसे अधिक सुडौल और कोई मूर्ति नहीं देखी गई। इस मण्डप के दोनों तरफ रथों के चित्र हैं। उनके पहिये और घोड़े चित्रित करने में ऐसी कुशलता दिखलाई गई है कि उनका रङ्ग कहीं कहीं फीका पड़ जाने पर भी उनकी मनोहरता कम नहीं हुई है।

१७६० ईसवी में अँगरेजों ने पहले पहल इस मन्दिर को अपने अधिकार में किया। परन्तु १७८१ ईसवी में ३००० आदमी लेकर हैदरमली ने उसे घेर लिया। अँगरेजों की सेना के नायक सर आयर कूट थे। उनको मन्दिर छोड़कर भागना पड़ा। भागने में उनकी

एक तोप भी हैदरमली के हाथ आई। श्री रङ्गपत्तन विमय होने तक
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यह मन्दिर हैदरअली और टीपू ही के आधीन रहा; परन्तु उस समय से इसका प्रभुत्व फिर अँगरेजों को प्राप्त हुआ। चिदम्बर दक्षिणी आरकट का एक "सब-डिवीज़न” है और अँगरेजी राज्य के अन्तर्गत है।

(नवम्बर १९०४)