दृश्य-दर्शन/तिबत।

विकिस्रोत से
[ १२३ ]
तिबत।

तिबत की उँचाई समुद्रतल से १४,५०० फुट है। उसके उत्तर में क्यूलन और दक्षिण में हिमालय पर्वत है। पृथ्वी पर जितने देश हैं तिबत की बराबर एक भी ऊँचा नहीं। उसे पर्वतमय कहना चाहिए। उसमें पहाड़ियों और पर्वत श्रेणियों की बड़ी प्रचुरता है। वर्फ से ढकी हुई हिमालय की चोटियाँ चारो ओर गगन-चुम्बन करती हैं। यह देश इतना बीहड़ है कि इसके रास्ते निहायत ही खराब हैं। इससे प्रवास करने में बड़ी कठिनाई पड़ती है।

तिबत के लोग बौद्ध-धर्म के अनुयायी हैं वे दूसरे देश वालों को अपने यहां नहीं आने देते और न उनसे कोई सम्बन्ध रखना चाहते

है। इसी कारण परकीय देश वालों को तिबत-सम्बन्धी बहुत कम ज्ञान है। तिबत की राजधानी लासा नगर है । लासा में दो पुरुष सर्वप्रधान हैं। वे लामा कहलाते हैं। एक लामा राज्य-सम्बन्धी हैं ; दूसरा [ १२४ ]
१२४
दृश्य-दर्शन

धर्म-सम्बन्धी। पिछले लामा का नाम दलाय लामा है। इस लामा का दर्शन अन्य देशवालों के लिए बहुत ही दुर्लभ है। तिबत में जितने महन्त, पुरोहित या धर्माध्यक्ष हैं सब लामा कहलाते हैं।

तिबत जाने में अनेक कष्ट,कठिनाइयां और बाधायें हैं। एक तो पथरीला और जङ्गली देश,दूसरे चोर और लुटेरों की अधिकता; तीसरे वहाँ न जाने की प्रतिबन्धकता;चौथे जाड़े का प्राचुर्य,तथापि आज तक बहुतरे योरप-निवासी और दो तीन हिन्दुस्तानी लासा तक हो आये हैं और अनेक पुस्तकें तिबत-सम्बन्धी लिखी जा चुकी हैं। पहले योरोपियन प्रवासी ने तिबत में,१३२५ ईसवोमें, सफर किया। उसके बाद,और लोग वहां गये और वहां की अनेक बातों में विज्ञता प्राप्त की। कुछ दिन हुए लैंडर नामक एक साहब तिबत पधारे थे। आप पर जो जो आपत्तियां आई उनका वर्णन सुनने से पत्थर भी पिघल जाय। उनकी वहां बड़ी ही दुर्दशा हुई ;उनका शरीर तक छिन्न भिन्न कर डाला गया। तथापि वे जीते जागते वापस आये। उन्होंने अपने प्रवास का जो वृत्तान्त लिखा है वह पढ़ने लायक है। हयू,नाइट गार्डन और मारखम वगैरह ने भी तिबत पर किताबें लिखी हैं; परन्तु लैंडर और कप्तान व्यल्वी की किताबें बहुत मनोरञ्जक हैं। कप्तान व्यरूबी ने १८१६ ईसवी में लछाख से चल कर,उत्तरी तिबत होते हुए,पेकिन तक सफ़र किया। मई में वे लछाख से रवाना हुए और दिसम्बर में हांगकांग के रास्ते कलकत्ते वापस आये। छः महीने तिबत पार करने में उनको लगे। उनकी यात्रा-सम्बन्धी कठिनाइयों का वर्णन पढ़ते वक्त रोमाञ्च हो आता है और उनके [ १२५ ]तिबत

तिबत
१२५
 

साहस,धैर्य तथा कष्ट-सहिष्णुता का विचार करके चित्त आश्चर्यसागर में डूब जाता है। चार महीने तक असबाब अपनी पीठ पर लाद कर उन को पैदल चलना पड़ा। खाने को सिवा जङ्गली जीवों के मांस के और कुछ उनको नसीब नहीं हुआ। कई महीने उनको मनुष्य-जाति के दर्शन नहीं हुए। परन्तु धन्य है उनके साहस को ! उन्होंने एक बार पामीर और तिबत के कुछ हिस्से में सफर किया था। उस समय ग्यारहवीं बडाल लैंसर्स का शहज़ादमीर नामक दफ़ेदार उनके साथ था। भाग्यवश व्यल्बो साहब को यह दफ़ेदार मिल गया था। उससे उनको बड़ी मदद मिली।

तिबत में चीन का सार्वभौमत्व है ; वह चीन का करद राज्य है। हर साल उसे चीन को कर देना पड़ता है। तिबत का राज्यसूत्र चीन है। चीनियों को छोड़कर तिबत वाले और किसी को अपने देश में नहीं आने देते । तिबत वाले शायद यह समझते है कि अपने से अधिक सज्ञान लोगों को अपने देश में आने देने से वे लोग धीरे धीरे तिवत का आधिपत्य अपने हाथ में कर लंगे।

ईस्ट इंडिया कम्पनी के पहले गवर्नर जनरल हेस्टिंग्ज के समय तक तिबत का बहुत ही कम हाल इस देश वालों को मालूम था। तिबत और हिन्दुस्तान से किसी तरह का सम्बन्ध तब तक न था। परन्तु हेस्टिंग्ज ने रंगपुर के रहने वाले पुरन्दर गिरि नामक संन्यासी को तिबत के प्रधान लामा के पास भेजा। उस संन्यासी ने अपना काम सफलता पूर्वक किया और वहां से सकुशल लौट भी आया।

परन्तु तिबत के सम्बन्ध से बाबू शरच्चन्द्र दास ने, इस समय, बहुत [ १२६ ]
१२६
दृश्य-दर्शन

बड़ा नाम पाया है। १८८२ में दार्जिलिंग से रवाना हो कर वे लासा तक चले गये ; लासा में वे कई महीने तक रहे भी। उन्होंने तिबतपर जो पुस्तक लिखी है उसका सब कहीं बड़ा आदर है। इस उपलक्ष्य में गवर्नमेंट ने उनको राय बहादुर की पदवी देकर अपनी प्रसन्नता प्रकट की। बौद्धशङ्कराचार्या दलाय लामा के विषय में दास वाबू,अपनी किताब में एक जगह लिखते हैं-

“हम को दलाय लामा के दर्शन हुए। उनकी उम्र, इस समय, आठ वर्ष की है। हमने देखा कि वे एक उच्च और सुसज्जित सिंहासन पर बैठे हैं। उनके दर्शनों के लिए दर्शक और पूजक लोग बड़ी भाव-भक्ति से एक एक करके भीतर जाते थे। वहाँ पर लामा के चरणस्पर्श करने पर लामा के अधिकारी उनको आशिर्वाद देते थे। जब हम लामा के पास से वापस आकर अपनी जगह पर बैठे तब हम को लामा का प्रसाद रूप थोड़ा सा चाय मिला। उसे हमने पी लिया ; परन्तु उनके नैवेद्य में से जो भात हम को दिया गया, वह हम ने नहीं खाया ; उसे हमने अपने पास रख लिया। इसके बाद लामा के प्रधान पुरोहित ने कुछ मन्त्र पाठ कर के लामा के चरणों पर अपना मस्तक रक्खा। जब यह हो चुका तब उसने सब को आशीर्वचन कह कर सभा बर्खास्त की"।

कवागुची केकय नामक एक जापानी भिक्षु तिबत में बहुत दिन तक रहा है। उसने भी अपने प्रवास का वर्णन प्रकाशित किया है।

तिबत में जगह जगह पर मठ है। “ओं मणि पद्म हूं" तिबतियों का प्रधान मन्त्र है ! लम्बे लम्बे कागजों पर मन्त्र लिख कर वे कागज़ [ १२७ ]
१२७
तिबत

एक प्रकार के पहियों पर लपेट दिये जाते हैं। ये प्रार्थना-चक्र लकड़ी या पत्थर के खम्भों पर लगे रहते हैं और हवा के जोर से घूमते हैं। पहिये के साथ कागाज़ का टुकड़ा भी घूमा करता है। इस घूमने को तिबत वाले मन्त्र की आवृत्ति मानते हैं। तिबत में कई मठ और मन्दिर बहुत बड़े बड़े हैं। उन में पाठशालायें भी हैं ; पुस्तकालय भी हैं ; और शिक्षक लामा तथा विद्यार्थियों के रहने के स्थान भी हैं।

जिस समय अंगरेज़ी गवर्नमेंट ने सिकिम पर अपना प्रभुत्व जमाया उस समय,पहले पहल,तिवन और भारतवर्ष के सम्बन्ध का सूत्र- पात हुआ,एक सन्धि-पत्र लिखा गया ।उस पर चीन और भारत- वर्ष की गवर्नमेंट ने हस्ताक्षर किये। परन्तु इस सन्धिपत्र के नियम निर्विवाद न हुए ; बहुत सी झगड़े की बातें रह गई। कुछ दिनों में याटुङ्गु नामक नगर में तिवतवालों ने एक मण्डी खोली। याटुङ्ग तिबत की सीमा के भीतर है। वहां पर तिबत और हिन्दुस्तान, दोनों देशों के व्यापारियों को व्यापार करने की अनुमति मिली। परन्तु सन्धिपत्र के विवादास्पद नियमों का निवटारा न हुआ।

झगड़े की जड़ें बनी रहीं। उन्हीं को आधार मान कर जनरल मैकडोनल्ड और कर्नल यङ्गहसबैंड ने ससैन्य ओर सशस्त्र तिबत में प्रवेश किया। जब पहले पहल तिबत मिशन ने अपना अस्तित्व प्रकट किया तव यह बात कही गई कि वह सर्वथा शान्तिमूलक है ; वह अशान्ति अथवा विद्रोह का कारण न होगा। परन्तु इस मिशन ने अब विकराल रूप धारण किया है। तूना में तिवन वालों की जो हत्या हुई है उसने इसके शान्त स्वरूप को विलकुल ही बदल कर और का और कर [ १२८ ]
१२८
दृश्य-दर्शन

दिया है। ज्ञानसी में,इस समय,यह मिशन रुका पड़ा है। इधर इसे लासा की तरफ़ आगे बढ़ने की आज्ञा मिल चुकी है, उधर तिबत वाले इसका अबरोध करते है। मामला टेढ़ा है। जान पड़ता है कि वह मिशन शीघ्र ही एक भयङ्कर चढ़ाई का रूप धारण करेगा।

इस मिशन के सम्बन्ध में इस समय पारलियामेंट में खूब वाद- विवाद हो रहा है। आसाम के भूतपूर्व चोफ़ कमिश्नर काटन साहब इस विवाद में अग्रणी हैं। वे इस मिशन का भेजा जाना प्रसन्द नहीं करते । इस मिशन के भेजे जाने के कई कारण बतलाये जाते हैं । उन में से कुछ कारण एक दूसरे के विरोधी भी हैं। पहला कारण यह बतलाया जाता है कि तिबत वालों ने सन्धिपत्र के नियमों की पाबन्दा नहीं की ; दूसरा यह कि मिशन के अफसरों से मिल कर झगड़े की बातों को तै करने के लिए तिबतवालों ने अपना कोई अफ़सर नहीं भेजा ; तीसरा यह कि तिबत वाले भीतर ही भीतर रूस से मिले हैं;चौथा यह कि तिबत की सीमा हिन्दुस्तान की सीमा से मिली हुई होने के कारण तिबत में अँगरेज़ी गवर्नमेंट के स्वत्वों को रक्षा आवश्यक है। परन्तु काटन आदि विचक्षण पुरुषों का मत है कि ये कारण बहुत ही निर्बल हैं ; सन्धि पत्र के नियमों का पालन होना और न होना बराबर है ; तिबत और भारतवर्ष का व्यापार बहुत कम है ; इस मिशन का भेजा जाना रूस और चीन दोनों राज्यों को पसन्द नहीं।

तिबत के विषय में एक नई बात सुन पड़ी है। वह यह है। कोई

२० वर्ष हुए घोमंग लोबजङ्घ नामक एक आदमी मङ्गोलिया से लासा को आया। वहां वह दाबङ्ग के मठ में वेदान्त का अध्यापक नियत [ १२९ ]
१२९
तिबत

हुआ । बहुत दिनों तक उसने अपना काम बड़ी योग्यता से किया। ५२ वर्ष की उम्र में वह रूस के दक्षिणी प्रान्तों में चन्दा एकत्र करने के इरादे से गया। उन प्रान्तों में बहुत से बौद्ध रहते हैं। यह बात १८९८ की है। इस सम्बन्ध में उसे सेंटपिटर्सबर्ग को भी जाना पड़ा। वहां रूसियों ने हेल मेल पैदा करके उसे अपने वश में कर लिया। उसको उसका कर्तव्य अच्छी तरह समझा दिया गया। वह रूस की तरफ से बहुत सी वेशकीमती चीजें दलाय लामा को उपहार में लाया। लामा महोदय उपहार से बहुत प्रसन्न हुए। घोमङ्ग ने कहा कि यदि आप एक बार सेंटपिटर्सबर्ग पधारे तो तिबत और रूस में हार्दिक मैत्री हो जाय ; तिबत की रक्षा का भार रूस अपने सिर लेले और सम्भव है, ज़ार महोदय-किरिस्तानी मत छोड़ कर बौद्ध हो जाय ; क्योंकि किरिस्तानी मत में उनका बहुत कम विश्वास है ! लामा ने इस बात को स्वीकार कर लिया ; उसने प्रसाद के तौर पर कुछ चीजें भी ज़ार को भेजी ; परन्तु उसका रूस की राजधानी को जाना दूसरे धर्माध्यक्ष को पसन्द नहीं आया । इससे दलाय लामा को वह विचार छोड़ना पड़ा।

घोमंग लोवजंग को किसी कारण से फिर रूस जाना पड़ा। फिर भी रूसियों ने उसे काँपे में फांसा । इस बार वह एक पत्र जार की तरफ़ से लाया जिस में लामा महोदय को यह सुझाया गया कि वे अपना वकील सेंटपीटर्सबर्ग को भेजें, रूस से बाला बाला पत्र-व्यवहार करें और चीन की आधीनता छोड़ कर स्वतन्त्रता पूर्वक रूस से सम्बन्ध रक्खें। लामा ने यह बात मंजूर की। सन्निद नामक एक प्रसिद्ध महन्त वकील बनाया गया। घोमंग के साथ वह सेंटपीटर्सबर्ग गया। उसने

[ १३० ]
१३०
दृश्य-दर्शन

लामा का दस्तखती पत्र जार को दिया। लामा की बहुत सी शर्ते रूस ने मंजूर कर ली और एक सन्धिपत्र भी लिखा गया ; परन्तु यह बात जब चीन को मालूम हुई तब उसने रूस और तिबत की उस काररबाई को रद कर दिया और तिवत पर अपनी सख्त अप्रसन्नता प्रकट की। अतएव वह बाल वहीं रह गई ; आगे नहीं बढ़ी। चीन की आज्ञा के बिना तिक्त किसी परकीय राजा से सन्धि नहीं कर सकता।

घोमंग का किस्सा कहां तक सच है नहीं मालूम। परन्तु रूस के बने हुए शस्त्र जो मिशन को युद्धस्थल में मिले हैं और तिबतियों की युद्ध पटुला जो इस समय देख पड़ रही है, उसले सूचित होता है कि रूतले सिक्त का कुछ न कुछ सम्ब़न्ध, यदि है नहीं, तो रहा आवश्य है।

[अगस्त १९०४]