दृश्य-दर्शन/मुरशिदाबाद
जिस समय मुरशिदाबाद बङ्गाल, बिहार और उड़ीसा की राजधानी था उस समय उसका जो गौरव और विभव था उसका इस समय
प्रायः समूल ही नाश हो गया है । उसके बड़े बड़े महल गिरकर ज़मीन के बराबर हो गये हैं;उसके अनेक मशहूर मशहूर महल्लों की जगह, जडल खड़ा हुआ है;उसके अनेक नव्वाब,नाज़िम, दीवान,नायब दीवान,सिपहसलार और फौजदार सफेद चद्दरों में लिपटे हुए करबला की मिट्टी के साथ गहरी कब्रो के भीतर, इन्साफ के आखिरी दिन का रास्ता देख रहे हैं। जहां किसी समय सात सौ मसजिदों से अजां की आवाज़ सुन पड़ती थी वहां इस समय सत्तर मसजिदें भी मुशकिल से होंगी। और उनमें से शायद सात ही अच्छी हालत में हों। मुरशिदाबाद में कई लाख आदमियों की बस्ती थी। पर १७६९ ईसवी के अकाल और १७७० की चेचक की बीमारी ने उसकी आबादी आधी कर दी । १८१५ ईसवी में वहां सिर्फ १,६५,००० आदमी रह गये। और अव ? अब सिर्फ १५००० ! किसी समय मुरशिदाबाद बीस मील के घेरे में बसा हुआ था;पर अब उसकी परिधि ६ मील से अधिक नहीं!
पलासी-युद्ध के बाद ही से मुरशिदाबाद का पतन शुरू हो गया। अंगरेज़-राजके प्रभुत्व की वृद्धि और मुरशिदाबाद के वैभव का हास साथ ही साथ होता गया। धीरे धीरे दोनों अपनी चरमसीमा को पहुंच गये । यद्यपि मुरशिदाबाद की इस समय अत्यन्त ही हीन अवस्था है तथापि सौ डेढ़ सौ वर्ष पहिले उसने अनेक राजकीय खेल खेलें हैं। नहीं मालूम कितने जाल,कितने फरेब,कितने विश्वासघात के अभिनय वहां हुए हैं। अंगरेजी राज्य की वह जन्मभूमि है;क्लाइव-कलङ्क की वह कृष्ण-वैजयन्ती है;स्वामि-द्रोह, स्वार्थ और कृतघ्नता की वह पतालभेदी जड़ है । अब भी उसमें बहुत सी इमारतें और चीजें देखने के लायक़ हैं। और नहीं तो मुरशिदाबाद का नाम सुनकर अर्थलोलुप और स्वदेशशत्रु मानिकचन्द,अमीचन्द,रायदुर्लभ,राजबल्लभ,नन्दकुमार आदि का स्मरण नया हो उठता है। इन्हीं कारणोंसे बाबू पूर्णचन्द मजूमदारने मुरशिदाबाद पर, कुछ दिन हुए, एक किताब अंगरेजी में लिखी है। उसीकी कुछ बातों का ज़िक्र इस लेख में किया जाता है।
ईस्ट इंडियन-रेलवे की "लूप लाइन” में एक स्टेशन नलहाटी
है। वहाँ से एक छोटी सी लाइन आज़मगज गई है । लक्खीसराय की तरफ से मुरशिदाबाद जाने वालों को वहीं उतरना पड़ता है। अज़मगञ्ज भागीरथी के एक किनारे पर है । मुरशिदाबाद दूसरे किनारे पर । मुरशिदाबाद का पुराना नाम मकसूदाबाद है। नव्वाब मुरशिद-कुली-खां ने १७०४ ईसवी में,अपने नाम के अनुसार,उसे मुरशि- दाबाद में बदल दिया। १२०३ ईसवी में बखतियार खिलजी ने पहले पहल बङ्गाल में मुसलमानी अमल की नींव डाली। तवसे मुरशिद-कुली खां तक ६८ नव्वाव वङ्गाल के मुसलमानी तख्त पर बैठे। मुरशिदकुली खाँ ने ढाका छोड़ कर मुरशिदाबाद को अपनी राज- धानी बनाया। मुरशिद ने हिन्दू-कुल में जन्म लिया था। वह एक गरीब ब्राह्मण का लड़का था । इस्फ़हान के हाज़ो सफ़ी नामक एक मुसलमान व्यापारी ने उसे मुसलमान बनाकर उसका पालन-पोषण किया था। औरङ्गजेब के समय में वह हैदराबाद का दीवान था। १७०१ ईसवी में वह बङ्गाल का दीवान मुकरर्र हुआ। १७०४ में वह मुरशिदाबाद आया । अठारहवीं सदी के प्रथमार्द्ध में मुसल- मानी राज्य की खूब उन्नति हुई । पर उसके उत्तरार्द्ध से उसकी अवनति शुरू हुई। उसकी अवनति के साथ ही साथ अंगरेजी-राज्य की उन्नति होती गई। १७६५ ईसवी में देहली के नाममात्रधारी बाद -शाह से ईस्ट इंडिया कम्पनी नाम के अंगरेजी-वणिक-समूह ने बडाल,बिहार और उड़ीसा की दीवानी प्राप्त की। तबतक भी मुरशिदाबाद बङ्गाल की राजधानी रहा। पर १७९३ ईसवी में स्वदेशी राज्य का शेष चिन्ह भी प्रायः जाता रहा और नव्वाब नाज़िम की सब शक्ति और प्रभुत्व लुप्त हो गई। नव्वाब नाज़िम का खिताब भर बाकी रह गया। वह भी १८८० ईसवी में न रहा। मुर शिद-कुली-खाँ से लेकर वर्तमान नव्वाब बहादुर तक १६ नव्वाब मुरशिदाबाद के सिंहासन पर बैठे। उनके नाम ये हैं-
मुरशिदकुली खां ने बहुत न्याय पूर्वक राज्य किया। उसने फौज़ी खर्च कम कर दिया; गल्ले का बाहर भेजा जाना बन्द कर दिया;विद्या को उन्नति दी;अनुचित कर माफ कर दिये और दोन दुखियों की खूब मदद की। उसके समय में रुपये का पाँच मन चावल बिकता था। जिसकी तनखाह एक रुपया थो वह भी मज़े में दोनों वक्त “पोलाव” उड़ाता था। उसके दीवन रज़ा खां का स्वभाव उसके स्वभाव से बिलकुल ही उलटा था। जो ज़मींदार मालगुजारी नहीं अदा कर सकते थे उनको वह रस्सी से बंधवा कर गन्दगी से भरे हुए गढ़ों में डलवा देता था। ऐसे नारकीय कुण्डोंका नाम उसने रक्खा था “बैकुण्ठ" ! मुरशिदकुली खां ने देहली के बादशाह की आधीनता अस्वीकार करके कर देना बन्द कर दिया। वह बङ्गाल, विहार और उड़ीसा का स्वतन्त्र नबाब नाज़िम हो गया। उसके बाद उसके दामाद शुजा खां को निज़ामत मिली।
शुजा खां के वक्त में अलीवर्दी खां नामक एक पुरुष मुरशिदाबाद आया। वह शुज़ाखां के मामू के रिश्तेदारों में से था। शुजा ने उसे पटना का गवर्नर नियत किया।
शुजाखां के लड़के सरफराजखां की अनबन दीवान हाजी अहमद से हो गई। हाजी अहमद अलीवर्दीखां का भाई था। इस कारण इन दोनों भाइयों ने मिल कर सरफ़राज़खां से बगावत की। लड़ाई हुई। लड़ाई में सरफ़राजखां मारा गया। अलीवर्दी को मुरशिदाबाद की मसनद मिली। उस समय, मुरशिदावाद के खज़ाने में ७० लाख रुपया नकद और ५० करोड़ रुपये का जेबर अलीवी के हाथ लगा।
अलीवर्दीखां ने १६ वर्ष राज्य किया और ५७५६ ईसवी में, ८०
वर्ष की उम्र में, वह मरा। उसने अपने बहनोई मीरजाफ़र को अपना सिपहसलार नियत किया । उसके वक्त में मरहठों ने बड़ा उपद्रव मचाया। कई दफ़े उनसे अलीवर्दीखां को लड़ना पड़ा। एक दफे अलीवर्दीखां ने बर्दमान के पास ४५ हजार मरहठों को परास्त किया। पर परास्त हुई फ़ौज ने जगत सेठ के मकान का रास्ता लिया और वहां पहुंच कर दो करोड़ रुपया लूटा । बरार का सूबा, और १२ लाख रुपया सालाना चौथ देना कबूल करके अलोवर्दी ने मराठों से अपना पिण्ड छुड़ाया। उस वक्त जगतसेठ का प्रभुत्व अपार था। टकसाल उसी के यहां थी। जितने राजे, महाराजे और जमींदार थे सब उसीकी मुट्ठी में थे। अलवर्दीखां के १६ वर्ष प्रायः लड़ाई-भिड़ाई ही में गये। तिस पर भी प्रजा उसपर खुश थी। पढ़े लिखे आदमियों की उसके यहां कद्र थी। कविता और इतिहास सुनने का उसे शौक था। हिन्दुओं को उसने बड़े-बड़े ओहदे दिये थे। उसके कोई लड़का न था। तीन लड़कियां थीं। उनको उसने अपने भाई के तीन बेटों से व्याहा। उनमें से अनीमा खानम के बेटे सिराजुद्दौला को उसने गोद लिया।
अँगरेज़ और कुछ हिन्दुस्तानी इतिहास-लेखकों ने भी सिराजुद्दौला
को काम-कर्दम का कीड़ा, निर्दयता का समुद्र, दुर्टसनों का शिरोमणि,अर्थ लोलुप और नरपिशाच आदि मधुरिमामय विशेषणों से विभूषित किया है। पर बाबू अक्षय कुमार मैत्रेय ने बँगला में सिराजुद्दौला का जीवन चरित लिख कर उसकी इस कलङ्क-कालिमा को धो कर प्रायः बिलकुल ही साफ़ कर दिया है। इस किताब को पढ़ने से यह धारणा होती है कि सिराजुद्दौला के समान सहनशील, राजनीतिज्ञ, बात का सच्चा, निर्भय, शान्ति प्रिय और रक्तपात द्वेषी शायद हो और कोई राजा या बादशाह हुआ हो।प्रायः सब कहीं अँगरेज़ों ही के लोभ,प्रतिज्ञा भजन,अन्याय, प्रतिहिंसक-स्वभाव,अनाचार,विश्वासघात आदि का परिचय मिलता है। इस पुस्तक में यह बात खूब दृढ़ता से साबित की गई है कि कलकत्ते के अन्धकूप, अर्थात् कालकोठरी, या ब्लैक होल की हत्या की कहानी बेसिर पर की एक औपन्यासिक गढन्त मात्र है। उसका कहीं इतिहास में पता नहीं। अँगरेज़ वणिकों के अत्याचार के कारण जब विलायत में हाहाकार और छी थू होना शुरू हुआ तब उस बात को भुला देने और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के , अधिकारियों के अपराध की गुरुता को कम करने के इरादे से हाल-वेल साहब ने इस झूठी कहानी की सृष्टि की। इस बात को मैत्रेय बाबू ने सप्रमाण सिद्ध करने की चेष्टा की है और उस समय के अँगरेज़ी कागज़ पत्रों से यह साबित किया है कि हालवेल साहब अन्यथावादी और घूसखोर था। उसने मीरजाफर को पदच्युत कर के मीरक़ासिम को मुरशिदाबाद का राजसिंहान दिला देने के वादे पर मीरक़ासिम से तीन लाख रुपया लिया और विलायत को झूठी रिपोर्ट कर दी कि मीरज़ाफर ने सिराजुद्दौला को माँ, मौसी और कई एक अन्य बेगमों को ढाके में कैद करके बड़ी ही निर्दयता से मरवा डाला। अतएव ऐसा अन्यायी और पापी पुरुष राज्य करने के लायक नहीं। यह रिपोर्ट बिलकुल ही झूठ थी। * १७६६ ईसवी में कलकत्ते के अंगरेज़ो दरबार ने इस बात की तहकीकात करके जो रिपोर्ट विलायत भेजा उसमें उसने इस हत्या-कहानी को सर्वथा मिथ्या बतलाया ।
- In justice to the meinory of the late Nabab MeerJaffer, we think it incumbent on us to acquaint you that the horrible mass- acres, wherewith he is charged by Mr. Hal- well in his address to the proprietors of the East India Stock ( Page 45), are cruel aspersions on the character of that prince, Which have not the least foundation in truth.
जिस हालवेल ने इस तरह का मिथ्यावाद किया वही यदि काल कोठरी की कहानी गढ़ कर कलत्ते के अँगरेज़-सौदागरों के विषय में विलायत वालों की सहानुभूति जाग्रत करने की कोशिश करे तो क्या आश्चर्य ?
सिराजुद्दौला बड़ा स्त्रैण था। उसने एक लाख रुपये देकर देहली से फैज़ी नामक एक बार वनिता मँगाई थी। वह सिर्फ २२ सेर वजन में थी। सुन्दरता में वह दूसरी उर्वशी थी। पीछे से सिराजु- द्दौला उससे नाराज हो गया और उसे उसने ज़िन्दा ही दीवार में चुनवा दिया। मोहनलाल नामक एक आदमी की बहन अत्यन्त सुन्दरी थी। उसका देहभार ३२ सेर था। वह भो सिराजुद्दौला की अङ्क-गामिनी हुई । इस उपलक्ष्य में मोहनलाल को मन्त्री का पद मिला । सिराजुदौला के बाद उसके महलों में कई सौ स्त्रियां निकली! रानी भवानी की विधवा लड़की तारा को जब उसने बुरी नज़र से देखा तब बङ्गाल के ज़मींदार उससे बेतरह नाराज़ हो उठे। तब तक सिराजुद्दौला केवल युवराज ही था। जब वह मुरशिदाबाद का मालिक हुआ और जगत सेठ को दरबार में उसने चपत मारी तब जगत सेठ के यहां मन्त्रणा करके लोगों ने उसे विश्वासघात-पूर्वक राज्यच्युत करने की ठानी। सिराज ने अपनी मौसी घसीटी बेगम को निकाल दिया;उसका माल असवाब जब्त कर लिया;और मीरजाफ़र को सिपहसालरी के ओहदे से दूर कर दिया। इन्हीं कारणों से लोग और भी उसके खिलाफ़ हो गये। यही सब बातें सिराजुद्दौला के नाश का कारण हुई।
अँगरेज़ों ने बिना सिराज के हुक्म के कलकत्ते में किला बना लिया
और जो अँगरेज़ ईस्ट इण्डिया कम्पनी की तरफ से व्यापार न करते थे,उनको भी कम्पनी के अफ़सर बिला महसूल व्यापार करने का परवाना बेचने लगे। यह सिराजुद्दौला को नागवार हुआ। उसने अँग- रेज़ों से कहा, किला गिरा दो। पर उन्होंने यह बात न मानी । सिराज ने दो दफ़ अपना दूत भी कलकत्ते भेजा। पर अँगरेज़ उससे बुरी तरह पेश आये। इस दशा में निरुपाय होकर सिराजु- द्दौला ने अँगरेज़ों की कासिम बाज़ार वाली कोठी पर कब्जा कर लिया। इस पर भी जब कलकत्ते का किला न गिराया गया तब सिराजुद्दौला ने कलकत्ते पर चढ़ कर उस पर भी अधिकार कर लिया। कहते हैं,काल कोठरी,या अन्धकूप की हत्या इसी समय हुई।
अँगरेज़ों से सिराज ने पीछे से सन्धि कर ली। पर उसके कुछ
हो दिन बाद वह भङ्ग हो गई। अंगरेज़ों ने चन्दन नगर को लूट कर फ़रासीसियों को वहां से निकाल दिया। इसके बाद उन्होंने लोभ के वश होकर हुगली,बर्दमान और नदिया को भी लूट लिया। सिराजुद्दौला की इच्छा युद्ध करने की न थी। वह अंगरेजों को व्यापार करने का अधिकार पहले का जैसा देने पर राज़ी था। कलकत्ते के व्यापारी अंगरेज़ भी युद्ध के खिलाफ़ थे; पर अँगरेज़ों के स्थल-सेनापात क्लाइव आर जल-सेनापति वाटसन को यह बात पसन्द न आइ । उन्होंने अपना निजी मतलब सिद्ध करने के इरादे से युद्ध करना हा निश्चित किया। जगत सेठ, मोरज़ाफर,कलकत्ते का भतपूर्व गवनर मानिकचन्द,ढाके का गवर्नर राजवल्लभ और वणिक् अमीचन्द अगरेजों से मिल गये। एक दस्तावेज़ लिखी गई। मुरशिदाबाद के खजाने से कम्पनी बहादुर को एक कराड, कल- कत्त अगरेज, बडाली और अरमनी लोगों को ७० लाख, और अमीचन्द को ३० लाख रुपया पाने की व्यवस्था हुई। अमीचन्द को रुपया देना अँग- रेज़ों को मंजूर न था और देने का वादा न करने से डर था कि वह उनकी गुप्त मन्त्रण नव्वाब पर जाहिर कर देगा। इसलिए क्लाइव ने दो दस्तावेजें लिखीं। एक सफेद कागज पर, दूसरी लाल काग्रज पर। लाल कागज वाली जाली थी। असली में अमीचन्द को रुपये देने की शर्त न थी।
पलासी में अँगरेजों का सामना सिराजुद्दौला ने किया। उसके सेनापतियों में से मीरमदन और मोहनलाल को छोड़ कर किसी ने भी ईमानदारी से युद्ध न किया। मीर मदन ने बड़ी बहादुरी दिखलाई । पर वह मारा गया। अकेले मोहनलाल ही क्लाइव का पराभव कर देता,पर विश्वासघात-पूर्वक लड़ाई बन्द कराकर मीर जाफ़र फौज को शिविर में ले आया। इतने में अँगरेज़ी फौज़ ने धावा करके सिराजुदौला को वची वचाई खरख्वाह फौज को तितर बितर कर दिया। सिराज लाचार होकर मुरशिदाबाद आया और वहां से राजमहल की तरफ़ भागा। पर मीर जाफ़र के आदमी उसे रास्ते से पकड़ लाये । अन्त में बड़ी बेइज्ज़तो के साथ मीरजाफ़र के बेटे मीरन ने उसे मरवा डाला। उसके कुछ ही दिनों बाद मीरन पर बिजली गिरी और उसीसे उसकी मौत हुई। क्लाइव ने मीरजाफ़र को मुरशिदाबाद की मसनद पर बिठाया और यथेष्ट पुरस्कार भी पाया; पर आखिर को आत्महत्या करके उसे इस संसार को छोड़ जाना पड़ा।
मीरजाफ़र ने क्लाइव को मालामाल कर दिया और अँगरेज़ वणिकों की हर तरह मदद की। कलकत्ते में टकसाल तक जारी करने की उसने आज्ञा दे दी। पर क्लाइव के विलायत चले जाने पर काल- कोठरी वाले हालवेल साहब उससे नाराज हो गये । इसका रण आपने मीरजाफ़र को पदच्युत करके उसके दामाद मीरक़ासिम को मुरशिदाबाद की गद्दी इनायत फरमाई। मीरकासिम ने कलकत्ते के गवर्नर और कौसिल के मेम्बरों को गद्दी पाने पर २० लाख रुपया देने का वादा किया था। पर इस वादे को उसने पूरा न किया। इसके सिवा और भी कई तरह से उसने अँगरेज़ों को नाराज़ कर दिया। अँगरेज़ों ने लड़ाई में उसे परास्त किया और मीरजाफर को दुवारा मुरशिड़ाबाद की मसनद पर बिठलाया । इस हादसे के दो वर्ष वाद मीरजाफर की मौत हुई।
मीरजाफर का लड़का नजमुदौला गद्दी पर बैठा। पर गद्दी की प्राप्ति के उपलक्ष्य में उसे २१,००,००० रुपया कलकत्ते के अंगरेज़ी
कौलिल के मेम्बरों को देना पड़ा ! नजमुदौला के वक्त में क्लाइव फिर कलकत्ते पधारे और देहली के नाम धारी बादशाह से कम्पनी बहादुर के लिए बङ्गाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी की सनद आपने हासिल की। इसके बाद आपने मुल्क का प्रवन्ध अपने हाथ में लिया और नजमुहौला के लिए ५३ लख रुपये सालाना वसीका मुकर्रर कर दिया। इस पर नजमुद्दौला ने बड़ी खुशी जाहिर की। उसने कहा-“अब मैं जितनी नर्तकियां चाहूंगा रख सकंगा” तब से मुरशिदाबाद की नब्वावो में घुन लग गया और नवाब की सारी शक्ति; धीरे धीरे, हास होते होते कम्पनी के हाथ में चली गई। सैफुदौला, नजमुद्दौला का छोटा भाई था । उसका वसीका कम्पनी बहादुर ने काट कर ४२ लाख कर दिया। नब्बाब के नाम के साथ सिर्फ नव्वाबी रह गई। उसके और अखतियारात लन्दन में कम्पनी के डाईरेकर्स के दफ्तर में जा पहुंचे। सैफदौला ने सिर्फ चार वर्ष- १७६६ से १७७० ईसवो तक मुरशिदाबाद की मसनद का सुख भोगा। इस बीच,१७६६ ईसवी में,चेचक की बड़ी विकराल बीमारी पैदा हो गई। उसने ६३ हजार आदमियों को हजम कर लिया। नव्वाब साहब को भी उसने न छोड़ा।
मुबारकुद्दौला को नव्बाबी मिली। उसकी उम्र उस वक्त सिर्फ १२ वर्ष की थी। वह मीरजाफ़र का बेटा था। उसकी मां का नाम बब्बू
बेगम था। पर हेस्टिंग्ज़ ने बब्बू बेगम को हटा कर मुबारकुदौला की सौतेली माँ मनोबेगम को बालक नव्वाब का रक्षक नियत किया। सगी को छोड़ कर सौतेली माँ को यह अधिकार क्यों मिला इसका ठीक ठीच पता नहीं चलता। पर मनोबेगम के वक्त के काग़ज़-पत्र जो जाँचे गये तो बहुत से रुपये का हिसाब ही न मिला । तहक़ीक़ात हुई। उससे मान्म हुआ-मनी बेगम ने खुद कहा कि कई लाख रुपया माननीय गवर्नर जनरल,श्रीयुत हेस्टिंग्ज साहब बहादुर,ने कबूल फ़रमाया था। महाराज नन्दकुमार ने हेस्टिग्ज़ पर बेगम से रुपये लेने का इलज़ाम लगाया;पर हेस्टिग्ज़ ने अपने विलायती मालिकों को समझा-बुझा कर सन्तुष्ट कर लिया। मुबारकु -द्दौला का वसीका सिर्फ १६ लाख साल रह गया। माल के दफ्तर मुरशिदाबाद से कलकत्ते उठ गये। न्याय-विभाग का काम भी कम्पनी बहादुर ने अपने हाथ में ले लिया। निजामत अदालत भी कलकत्ते चली गई। महाराज नन्दकुमार पर एक जाली दस्तावेज़ बनाने का इलज़ाम लगा हेस्टिज ने उन्हें फांसी दे दी।
इसके आगे मुरशिदाबाद के इतिहास में कोई विशेष महत्व की बात नहीं है। इसलिए अब हम मुरशिदाबाद की दो चार ऐतिहासिक इमारतों का ज़िक्र करते हैं।
किला निजामत भागीरथी के किनारे है। उसीके भीतर महल, इमामबाड, रहने के मकान, घण्टा घर, बङ्गले और कई मसजिदें हैं। किले में कई फाटक हैं। उनमें से दक्षिण फाटक सबसे अच्छा है। खास खास फाटकों के नीचे से अम्वारी समेत हाथी निकल सकता है। इन फाटकों के ऊपर नौबतखाने हैं, जहां सुबह, शाम और आधी रात को नौबत बजा करती है ।
मुरशिदाबाद में जो महल है उसका नाम बड़ी कोठी या हजार द्वारी है। वही मुरशिदाबाद की मशहूर इमारत है। उसमें बहुत सी चीजें देखने लायक है। यह इमारत ४२४ फुट लम्बी, २०० फुट चौड़ी और ८० फुट ऊँची है। नब्बाब नाज़िम हुमायूं जाहने इसकी नींव १८२९ ईसवी में, डाली । इसके बनने में ८ वर्ष लगे। कर्नल मेकल्यूड की निगरानी में यह बनी, पर बनाया इसे हिन्दुस्तानी ही
कारीगरों ने । यह बड़ी ही सुन्दर इमारत है और तीन खण्डों में बनी हुई है। नीचे के खण्ड में तोशकखाना, सिलहखाना और नहाफिज़खाना है। इनके सिवा कई एक दफ्तर भी हैं। दूसरे खण्ड में दरबार का कमग,मुलाक़ात का कमरा,खाना खाने का कमरा, सोने का कमरा, गोलघर इत्यादि हैं। तीसरे खण्ड में पुस्तकालय, नाचघर इत्यादि हैं। सब कमरे और दीवान-खाने खूब लम्बे, चौड़े और सजे हुए हैं। उनमें जो सामान हैं, सब खूबसूरत और वेश-कीमती है।
यहां के पुस्तकालय में हाथ से लिखी हुई फ़ारसी और अरबी की अनेक उत्तमोत्तम जौर अप्राप्य पुस्तके हैं। यहां की जैसी बहुमूल्य कुरान की पुस्तकें हिन्दुस्तान में और कहीं नहीं। कलकत्ते में लार्ड कर्जन की कृपा से, महारानी विक्टोरिया की यादगार में, जो इमारत बन रही है,उसमें रखने के लिए यहां से कई अलभ्य पुस्तकें भेजी गई हैं। इस पुस्तकालय को दो चार पुस्तकों के नाम हम नीचे देते हैं-
१-कुरान आलम गीरी और औरङ्गजेब की पुस्तक ६६५ हिजरी में याकूत सुस्तसिमी की लिखी हुई। यह बहुत प्रसिद्ध लेखक हुआ है। इस कुरान में औरङ्गजेब की मुहर है। उसमें लिखा है-“अल मुज़- फ्फर मुही उद्दीन औरङ्गजेब बहादुर आलम गीर बादशाह गाज़ी, १०७६ हिजरी।"
२-सिर्फ १६ पृष्ठों पर लिखी हुई कुरान की पुस्तक ।
३-कुरान की पुस्तक । बहुत ही छोटे साँचे की सिर्फ २ इञ्च लम्बी, २ इञ्ज चौड़ी!
४-अवध के नब्याव वज़ीर नसीरुद्दीन हैदर के लिए लिखी गई (२४ इञ्च ४१२ इञ्च ) कुरान की पुस्तक । दाम ३०,००० रुपए।
५–अली के हाथ को लिखी हुई कुरान की पुस्तक। अरब से एक लाख रुपये में खरीद कर लाई गई !
६–अनवार-सुहेलो। ६४० हिजरी में मुहम्मद यूसुफ़ समरकन्दी की लिखी हुई। इस पर अकबर की मुहर और दस्तखत हैं- “दीदा शुद अल्ला हो अकबर।"
७-फारसी-कवियों की कविता का संग्रह। इस पर देहली के बाद- शाह शाह आलम की मुहर है।
८-अकबर नामा । अबुलफजलका लिखा हुआ। अबुलफल अकबर के नवरत्नों में से था। इस पर एक जगह लिखा हुआ है- “अहमद व हमराज़ जहांगीर बादशाह ।” दूसरी जगह लिखा हुआ है-“अफ़ज़ल-खां बन्दये शाहेजहां।” ।
९-पन्दनामा जहाँगीरी। यह ७ जिल्दों में है। जहाँगीर के लिए फ़ारस के रहने वाले मीर इमदाद नामक लेखक ने, १६०७ ईसवी में लिखा । गदर के वक्त अँगरेज़ों को यह पुस्तक देहली के शाही पुस्तकालय में मिली थी। पीछे से कलकत्ते की हैमिल्टन कम्पनी ने इसे मुरसिदा बाद के नव्वाव नाज़िम को ७,००० रुपये में बेचा।
१०–पन्दनामा अरस्तातलीस। अरिस्टाटल की उक्तियों का फ़ारसी अनुवाद । ०५१ हिजरी में शाहज़ादा दारासिकोह का लिखा हुआ।
इस महल में चित्र भी बहुत हैं और कोई कोई बहुत कीमती हैं।
यहां के सिलहखाने, अर्थात् शस्त्रागार में अनेक पुराने और बहु- मूल्य हथियार हैं। कितनी ही उत्तमोत्तम तलवारें, पेशकब्ज़ कटार, भुजालियां,पिस्तौल,ढाले,भालें,कुकड़िया,तव्र इत्यादि हथियार बड़ी
ही सुन्दरता से दीवारों पर लगे हुए हैं। कोई २० तरह की तो सिर्फ तलवारें हैं। बहुत से हथियार ऐसे हैं जिनसे मुरशिदाबाद के नब्वाव नाज़िम और उनके सिपहसालारों और अमीरों ने लड़ाई में काम लिया है। यहाँ के अनेक हथियार भी,लार्ड कर्जन की कृपा से, विकटोरिया की यादगार में जो इमारत कलकत्ते में बन रही है, उसमें रखने के लिए उठ गये हैं। दो चार हथियारों के नाम हम नीचे देते हैं-
१–विक्रमादित्य का भाला-मुसल्मानों के द्वारा हिन्दुओं से छीना गया। फल के ऊपर एक तरफ़ विष्णु का दूसरी तरफ़ गरुड़ का चित्र है। फल की लम्बाई १८ इञ्च । सोने से मढ़ा हुआ।
२-तैमूर की तलवार-इस पर फ़ारसी में खुदा हुआ है-“अमीरे साहब केरान ।" अक्षर सोने के हैं।
३-फारस के बादशाह शाह अब्बास के समय में मशहूर कारी- गर असदुल्ला इस्फहानी की बनाई हुई कितनी ही तलवारें।
४-औरङ्गजेब की तलवार । औरङ्गजेब का नाम खुदा हुआ।
५-फारस के शाह अब्बास की निज की तलवार जिसे वह हाथ में रखता था।
६-देहली की बनी हुई तलवार,२ फुट ६ इंच लम्बी। इस पर “महम्मदशाह गाजी” खुदा हुआ है।
७–वारन हेस्ट्जि का दिया हुआ कटार। इसे हेस्टिग्ज ने नब्बाब नाज़िम को नज़र किया था।
८-बारह हजार रुपये में खरीदे गये दो पिस्तौल। इन पर सोने और चाँदी का बहुत अच्छा काम है।
यहां के तोशेखाने में जेबर और जाहिरात भी बहुत क़ीमती
कोमती हैं। अनेक हीरे,पन्ने,लाल और मोती ऐसे हैं जो अपने रूप,रंग,बड़ाई और इतिहास के कारण प्रसिद्ध हैं। अनेक रत्न ऐसे हैं जो देहली के बादशाहों के पास रहे हैं । इस तोशेखाने में कुछ बहुमूल्य हथियार भी हैं;उन पर तरह तरह के रत्न जड़े हुए हैं। यहां एक तलबार है जिस पर जड़े हुए सिफ़ रत्नों की कीमत कोई ३०,००० रुपये हैं। एक हीरों से जड़ा हुआ सरपेंच है। कलकत्ते की हैमिल्टन कम्पनी ने इसके एक ही हीरे की कीमत बेशुमार वतलाई है। लोग कहते हैं कि यह सरपेंच अकबर का है। एक हार बहुत मनोहर और बहुमूल्य है। उसमें बेशकीमती मोती, लाल,नीलम और हीरे हैं। एक लाल के ऊपर खुदा हुआ है—“जहाँगीरशाह इब्न अकबरशाह,१०१८ हि०।" इसी हार को नादिरशाह के डर से देहली के बादशाह महम्मदशाह ने मुरशिदाबाद भेज दिया था।
मुरशिदाबाद के इस महल में बहुत पुराने पुराने कागजात अभी तक रक्खे हैं। उनमें से कितनी ही सनदें, दस्तावेजें, फरमान और सन्धिपत्र हैं। कुछ कागज़ कलकत्ते के नये विकोरिया भवन में रखने के लिए चले गये हैं। वारेन हेस्टिंग्ज,मेक्फरसन,लार्ड कार्न- वालिस और सर जान शोर के हाथ से लिखे हुए कई पत्र अब तक अच्छी तरह सुरक्षित हैं । अँगरेज़ों और नव्वाव नाज़िमों के दरमियान जो सन्धिपत्र लिखे गये थे वे भी अब तक विद्यमान हैं। उनकी तफ़सील इस प्रकार है-
(१) १७६३ ईसवी का सन्धिपत्र,मीरजाफर और ईस्ट इण्डिया
कम्पनी के दरमियान । इसी के अनुसार मीरक़ासिम को पदच्युत करके मीरजाफर को दुबारा मुरशिदाबाद की मसनद मिली और मीर जाफर ने अँगरेज़ों को वर्दमान,मेदनीपुर और चटगाँव के चकले दिये।
(२) ईस्ट इण्डिया कम्पनी और नजमुद्दौला के दरमियान,१७६५ ईसवी की सन्धि। इसके मुताबिक कम्पनी ने नव्वाब की मदद करने का भार अपने ऊपर लिया।
(३) १७६५ ईसवी का इकरारनामा । जनमुद्दौला और कम्पनी के दरमियान । इसके अनुसार नव्वाब ने ५४ लाख सालाना वसीका मंजूर किया।
(४) सैफुद्दौला और कम्पनी के दरमियान,१७६६ ईसवी की, सन्धि । अँगरेजों ने नव्वाब की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया। नव्वाब ने सिर्फ ४२ लाख रुपया सालाना अपने खर्च के लिए लेना मंजूर किया।
(५) १७७० ईसवी का सन्धि-पत्र । कम्पनी बहादुर और नव्वाब मुबारफुद्दौला के दरमियान । नव्वाब का सिर्फ ३२ लाख रुपया साल वसीक़ा कुबूल करना।
ये सब सन्धिपत्र कलकत्ते पहुंच गये हैं। इनपर क्लाइव,ड्रक, वाटसन,वारन हेस्टिंग्ज इत्यादि के असली दस्तखत हैं। इङ्गलैण्ड के राजा चौथे विलियम का लिखा हुआ,नव्वाब मुबारकुद्दौला के नाम, एक पत्र भी यहां यथावत् रक्खा हुआ है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने मीरजाफर को घड़ी,मेज़,सन्दूक,आईने इत्यादि बहुत सी अच्छी अच्छी और कीमती चीजें जो नजर में दी थीं वे भी यहां बड़े यत्न से रक्षित हैं। ये सब ऐतिहासिक चीजें अवलोकनीय हैं।
मुरशिदाबाद का इमामवाड़ा एक मशहूर इमारत है। उसके बनाने में ६ लाख रुपये खर्च हुए थे। सिर्फ ११ महीने में वह बना था। मेसनों और मजदूरों को खाना, कपड़ा भी मिलता था। वे दिन-रात काम करते थे । इमारत खतम होने पर उनको दुशाले और रूमाल इनाम मिले थे। उस वक्त सारा मुरशिदाबाद दुशाला मय हो गया था। इस इमामबाड़े की लम्बाई ६८० फुट है। लखनऊ के इमामबाड़े से उतर कर हिन्दुस्तान में इसी का नम्बर है। इसमें जो लेख है उसमें लिखा है कि “यह दूसरा करबला है।" इसके खम्भे बहुत ही खूब सूरत और ऊँचे हैं;इसका फर्श सङ्गमरमर का हैं; इसके मण्डप के भीतरी हिस्से में सोने और चांदी का काम है। मुहर्रम के वक्त दस बारह रात तक इसमें खूब रोशनी होती है। उस समय इसकी शोभा अपार हो जाती है।
चौक-मसजिद,इस समय,मुरशिदाबाद में सब से बड़ी मसजिद है। १७६७ ईसवी में उसे मीरजाफ़र की बीबी,मनीबेगम,ने बनवाया था। यह मसजिद बहुत खूबसूरत है और अच्छी हालत में है ।
मुरशिदाबाद से थोड़ी दूर पर वह जगह है जहां नव्वाव नाजिम का तोपखाना था। वहां पर अब सिर्फ एक तोप रह गई है। वह बहुत बड़ी है। उसका नाम है “जहां कुशा”। वह एक गाड़ी पर
चढ़ी हुई थी। पर इस समय गाड़ी के पहिये तक गायब हो गये हैं। पर उसका कुछ हिस्सा,जो बहुत मजबूत लोहे का था,अब तक उसके नीचे देख पड़ता है। तोप की बगल में पीपल का एक पेड़ उग आया है। उसने तोप को अपनी गोद में रख कर उसे जमीन से ४ फुट ऊँचा उठा लिया है। यह तोप १७ फुट ६ इंच लम्बी है। इसका वजन २१२ मन है । १६३७ ईसवी में इसे जनदिन नाम के कारीगर ने. ढाके में,बनाया था। इस पर कई लेख खुदे हुए हैं जिन में से सिर्फ दो पढ़े जाते हैं।
मुबारक-मंजिल मुरशिदावाद के महल से दो मील है। वहां ईस्ट इण्डिया कम्पनी के दफ्तर थे। जब दफ्तर कलकत्ते उठ गये तब नव्वाव हुमायूं जाह ने उसे दस लाख में खरीद लिया। इस इमारत के सामने काले पत्थर का एक तख्त है। सुल्तान शुजा के वक्त से बङ्गाल के नव्वाब नाज़िम इसी तख्त पर बैठते थे। बुखारा के रहने वाले ख्वाजा नज़र नाम के कारीगर ने इसे,१६४३ में,बनाया था। पलासी की लड़ाई के बाद क्लाइव ने मीरजाफ़र को मंसूर-गज में,इसी तख्त पर बिठलाया था। १७६६ में,बङ्गाल,विहार और उड़ीसा की दीवानी प्राप्त करके,क्लाइव,नजमुद्दौला के बराबर, इसी तख्त पर बिराजे थे । जब से मुरशिदाबाद के नव्वाब दीवानी का बोझ अपने सिर से उतार कर हलके हो गये,तब से उन्होंने इस तख्त पर बैठना छोड़ दिया। उस साल जब लार्ड कर्जन मुरशिदाबाद में मुबारक मंजिल देखने पधारे थे तब आपने अपने आसन से इसे कृतार्थ किया था। अब यह मुख्त कलकत्ते उठ आया है।
मोती झील महल से कोई दो मील है। प्राचीन गौड़ की गिरी
हुई इमारतों से, अलवर्दी खां के दामाद, नवाजिश अहमद ने यहां पर एक मकान बनवाया। धीरे-धीरे और भी कई अच्छी अच्छी इमारतें वहां पर बन गई। एक मसजिद भी बन गई । सिराजुद्दौला की मौसी, घसीटी बेगम,यहीं रहती थीं। यहां पर बहुत से राजनैतिक खेल हुए हैं। १७५७ ईसवी में यहीं से सिराजुद्दौला ने पलासी की लड़ाई के लिए प्रस्थान किया था। दिवानी की सनद हासिल करने के बाद यहीं क्लाइब ने जमींदारों से नज़रें ली थीं। १७७१-७३ में, जब वार्न हेस्टिंग्ज नव्वाब नाजिम के दरवार में पोलिटिकल रेजिडेन्ट थे तब,आप यहीं रहा करते थे। यहीं पर सर जान शोर भी कुछ दिनों तक रहे थे।
गङ्गा के दूसरे किनारे पर खुशबाग नाम का एक बाग है। उसमें अलवर्दी खां और उसके कुटुम्बियों की कब्रे हैं। सिराजुद्दौला की कब्र भी यहीं पर है।
जाफ़रगञ्ज का मक़बरा महल से कोई डेढ़ मील है। मीरजाफर से लेकर हुमायूं जाह तक-मुरशिदाबाद के नव्वाब नाजिमों-की कब्रें यहीं हैं। यहां कई आदमी कुरान का पारायण करने के लिए नियत हैं। हर तीसरे दिन एक परायण हो जाता है और फिर वह नये सिरे से शुरू किया जाता है।
हीरा मील जाफ़रगञ्ज से थोड़ी ही दूर है। मसनद पर बैठने के पहले यही सिराजुद्दौला ने अपना विलास भवन बनवाया था और यहीं पर वह अनङ्गरङ्ग में मस्त रहता था। पलासी की लड़ाई से लौटकर यहीं से वह,अपनी बेगम,लतीफुन्निसा,को लेकर राजमहल की तरफ भागा था। यहीं क्लाइव ने मीरजाफर की बांह पकड़ कर उसे तख्त मुबारक पर बिठाया था।
मुरशिदाबाद के पास ही कसिम-बाजार है। १६५८ ईसवी में वहां पहले पहल अँगरेज़ वणिकों ने अपनी कोठी बनाई। अब इस कोठी का समूल नाश हो गया है। सिर्फ़ एक टीला बाकी है। पर अट्ठारहवीं सदी में अँगरेज़ों की रेजिडेन्सी की इमारत बहुत अच्छी थी। शुरू शुरू में हेस्टिंग्ज साहब वहीं पर हिन्दुस्तानियों से माल खरीदा करते थे। वहीं आपने एक अँगरेज़ विधवा से विवाह भी किया था। कोठी पर दखल करने के बाद सिराजुदौला ने वहीं से हेस्टिंग्ज को कैद करके मुरशिदाबाद भेजा था !
मुरशिदाबाद के विषय में अभी बहुत सी बातें लिखनी बाकी हैं। पर लेख बढ़ जाने के भय से हम अधिक नहीं लिखा चाहते । सिराजुद्दौला को पदच्युत करके मीरजाफ़र को मसनद दिलाने के उपलक्ष्य में मुरशिदाबाद के खजाने से कोई दो करोड़ रुपया कलकत्ते के अङ्गुरेज़ अधिकारियों को दिया गया था। उनमें से कुछ की तफसील नीचे देकर हम इस लेख को खतम करते हैं-