नाट्यसंभव/छठवां दृश्य

विकिस्रोत से
[ ५७ ]

छठवां दृश्य।

परदा उठता है।

(स्थाम नन्दनवन-कुसुम सरोवर)

(सरोवर के तीर सिर झुकाये इन्द्र उदास बैठा है)

इन्द्र। हाय! अब तो हृदय किसी शांति शान्त नहीं होता। जितना इसे ढाढ़स देते हैं उतनाही यह अधीर हुआ जाता है। क्या कहें ? कहां जायं? किस्म कहैं? यह ऐसी ठंढी आग है कि इसे कोई जल्दी बुझाही नहीं सकता। क्योंकि-

दोहा।

प्रियबिछोह की भांति जग और दुसह दुख नाहिं।
समुझाये पुनि होत बहु विकल प्रान तन माहिं॥

(ठहरफर) ऐं! इतना विलंव भया, अभी तक भरत मुनि नहीं आये। क्या उन्होंने केवल हमें ढाढ़स देने के लिये कोरी बातें बनाई थी ? नहीं नहीं, यह तो कभी हाही नहीं सकता कि वह खाली बढ़ावा देकर टाल वाल कर गये हों। ऐं। पिंगाक्ष ने तोआकर कहा था कि मुनिवर शीघ्र आवैगे पर इतनी! देर क्यों हुई?

(द्वारपाल आता है)

[ ५८ ]

द्वारपाल। महाराज की जय होय। महर्षि भरताचार्य्य का एक चेला द्वार पर खड़ा है।

इन्द्र। (सिर उठा कर सहर्ष) क्या कहा? भरताचार्य्य का चेला? तो उसे जलदी भेजो।

द्वारपाल। जो आता। (गया)

इन्द्र। अभी हम नाचही रहे थे कि भरतमुनि क्या हमें भूल गये, पर नहीं। महात्मानन स्वतावही से दयालु और परोपकारी होते हैं। वे लोग बिना किमी स्वार्थ या प्रयोजन के ही दीनों पर दया करते हैं। आच्छा, देखें अद हमारा मन क्योंकर ठिकाने आता है। हा! इन्द्राणी के वियोग ने हमारे हृदय पर ऐमी गहरी दोट लगी है कि जिसका जल्दी अच्छा होना बहुत ही कठिन दिखाई देना है।

(इन्द्र सिर झुकाये हुए कुछ नाचता है और इधर उधर देखता हुआ दमनक जाता है)

दमनक! अहा! हमारे गुरुजी का कैसा प्रताप है कि हम बिना किसी से पूछे ताछे यहां तक पहुंच गये और जिनकी कृपा से स्वर्ग की छटा देखो, उन्हींकी दया से आज इन्द्र के भी दर्शन होंगे। भला इनमें इतनी सामर्ध्य कहां थी कि इसी देह से स्वर्गलोक में आकर जहां चाहते वहां घूमा करते और कोई न टोकता! ओहो! मुनियों की सेवा करने से कैसे २ अपूर्व फल [ ५९ ]मिलते हैं। (थोड़ा आगे बढ़ और देख कर) वही तो! सामने कुसुमसरोवर के तीर स्फटिकशिला पर सिर झुकाये इन्द्र बैठे हैं। ऐं ऐं। इनके तो सारे शरीर में आँसही आँख दिखाई देती हैं। (एक-दो तीन करके गिनता हुआ) आह। दूर करो, कहां तक गिनें। सौ पचास हो तो गिनी भी जायं। यहां तो सैकड़ों की गिनती ठहरी। सुना था कि इन्द्र के हजार नेत्र हैं, जो आज आंखों देखा। पर इसके सब नयनों में आँसू की बूंदें क्यों चमक रही हैं। ऐसा सुन्दर मुख मुर्झाय क्यों गया है? (सोच कर) हां हां। अब समझे। इन्द्राणी के बिछोह ने इनकी ऐसी दशा की है। तो या प्रियतमा स्त्री का वियोग इतना दुखदायी होता है? राम! राम! ईश्वर न करै कि ह भी कभी ऐसा दुःख भोगना पड़े। अपने रान तो अब कक्षी व्याह का नाम भी न लेंगे। जो कहीं कोई असुर ससुर छीन लेगा तो हम उसका क्या कर लेंगे! जय इन्द्रही के किये कुछ नहीं होता तो हमारी कान गिननी है! और फिर जब इन्द्र इतना उदास हो रहा है तो भला हमारे मान काहे को बचेंगे? पाई। हम तो अब जाकर मृत्युलोक के राजाओं को चिताय देंगे कि अब तुम लोग इन्द्र बनने की लालसा से हाथ धो डालो, नहीं तो एक न एक दिन जोरू [ ६० ]जरूर गँवानी पड़ेगी। हहहह!!! कैसा अंधेर है कि कुछ कहाही नहीं जाता। (आगे बढ़ कर) स्वर्ग की वेश्याओं के आदर करनेवाले सहस्रलोच की जय होय।

इन्द्र। (चौंक कर) अरे! तुम कौन?

दमनक। हम हैं दमनक!

इन्द्र। क्या मुनिवर ने तुम्ही को भेजा है।

दमनक। इसमें कुछ सन्देह है?

इन्द्र। नहीं नहीं सन्देह कुछ भी नहीं है।

दमनक। गुरूजी ने प्रार्थना की है कि………

इन्द्र। (जल्दी से) क्या आज्ञा की है?

दमनक। इतनी उतावली कीजियेगा तो हम सब आगा पीछा भूल जायँगे।

इन्द्र। अच्छा! धीरे २ कहो।

दमनक। धीरे बोलने का हमे अभ्यास नहीं है।

इन्द्र। (मुसकाय कर मन में) यह तो कोई विचित्र बटु दिखाई देता है। पर सीधा भी इतना है कि हमारे सामने कुछ सङ्कोच नहीं करता (प्रगट) अब जैसे तुम्हारे जी में आवै, वैसे कहो।

दमनक। अब महाराज ने हमारे मन की बात कही। तो अब आप इतने दुःख का सार क्यों सहते हैं आपके रोग की औषधि बन गई है। गुरुजी आकर शीघ्र [ ६१ ]ही इसकी जड़ तक खोद कर फेंक देंगे। इसलिये इस व्याधि से छुटकारा पाने में अब देर न समझिए।

इन्द्र। (दमनक की ओर देखता हुआ मन में) यह तो बड़ा हँसोड़ या ढीठ जान पड़ता है और उसके आघरण मे ऐमा प्रतीत होता है कि भरतमुनि के लाड़ प्यार ने इसे और भी चौपट कर दिया है। परन्तु भोला भी ऐसा है कि निडर होकर हमसे सीधी २ बातें कर कहा है। क्योंकि इसे अभी तक यह ज्ञान नहीं है कि किससे किस रीति से बातें करनी चाहिए। जो होय, पर घोड़ी देर इमकी बातही से जी बहल जायगा। (प्रगट) क्या मुनिवर आरहे हैं?

दमनक। वही बात तो कहा सुजान। (मनमें) फिर क्यों पूक्त बारंबार॥

इन्द्र। (हँसकर) वाह! जैसा विचित्र तू है, वैसीही तेरी कविता भी अद्भुत है। (मन में ) अच्छा ! थोड़ी देर भरत नहीं तो इस जडारन ही से अपना माथा खाली करें। जान पड़ता है कि भरतमुनि ने जानबूझ कर इस उजड को यहां भेजा है कि जिससे हमारा जी यहले (प्रगट) क्योंरे दमनक! तू आशु कवि कब से हुआ

दमनक। आपको अभी तक यह विदित ही नहीं था? अरे! संगीतविद्या तो गुरूजी ने घोल कर पिलाही [ ६२ ]दी है रहा साहित्य, सो भी आधा तो चाट गये, बाकी जो बचा है, वह भी दो चार दिन में चटनी कर डालेंगे।

इन्द्र। (हँस कर) बाहरे लड़के शाबाश! क्यों न हो! तय तो चारों ओर तही तू दिखाई देगा । सला! यह तो बना कि भरतमुनि कयोंकर हमें प्रसन्न करेंगे?

दमनक । हम भी तो यही कहने के लिए आए हैं।

इन्द्र । हा हा ! उसे अन्दी मे कार पाल !

दमनका फिर वही जल्दी? तो फिर हम मय भूल जायंगे।

इन्द्र । ( मन में ) हे राम ! यह कैसा दुष्ट है? (प्रगट)। अच्छा ! अब जल्दी न करेंगे।

दमनक। आपकी जय होय, तो फिर सुनिए-

नाटक नाटक नाटक नाटक।
रूप काहाटक रस का फाटक।
तम का फाटक का छांटक।
बिरहा त्राटक आनंद चाटक॥

इन्द्र। अहा! तुझे तो मुनिवर ने एक सङ्ग यमक अनुप्रास की रासही बना दिया है। अच्छा हम भी तुझे आज 'कविरत्न' की पदवी देते हैं।

दमनक । (प्रणाम करके) महागज का भला हाय । हे देव कविरत्न तो हम थेही। जो और कुछ मिलता तो बहुत अच्छी बात होती खेर।

इन्द्र। अच्छा २ फिर देखा जायगा। हां यह तो पता कि [ ६३ ]भरतमुनि ने ऐसी अपूर्व विद्या कहां ने पाई?

दमनक। (मन में) वाह! अच्छे प्रपञ्ची से काम पड़ा। बकते २ मिर घूमने लगा। न जाने कब पन्ना छूटैगा। (हंसकर) अरे! फिर वही बात! जो यह हमारे मन की बात जान कर कोई शाप वाप दे वैठे तब? अच्छा अय कभी ऐसा न सोचेंगे। (प्रगट ) सरस्वती माई ने दी है। बस इसीसे आपकी सब अलाय बलाय उड़ जायगी।

इन्द्र । ठीक है। भला तू अपनी बनाई फोई कवितातोपद?

दमनक। जो आसा (उछल कर बगल बजाता हुआ) किन्तु वाह २ किये जाइयेगा नहीं तो रूपक न बंधेगा। सुनिये तो सही,कैसा कठिन काम किया है। हूं उसे (सुर साध कर गाता है)।

सांझ सवेरे उठके हलुआ पूरी खाओ।
दूध मलाई रवड़ी से भुजडंड मुटाओ॥
पान चाभ सानीसा दोनों गाल फुलाओ।
पहलवान बन बेगि असुरगन मारि गिराओ॥
थाही विधिसों अभी जाय प्यारी को लाओ।
सुख दुख सबै समान होय मङ्गल तुम गाओ।

इन्द्र। (हंसकर) अहा हा हा ! क्या कहना है बहुतही अच्छी कविता है। तूने तो रीति,नीति,उपदेश आदि के मसाले डाल कर साहित्य और सङ्गीत की खिचड़ी [ ६४ ]पका डाली। अच्छा अब जाकर मुनिवर से शीघ्र आने के लिए निवेदन कर ।

दमनक । (मन में) हाय ! इतना सिर खपाने पर भी यही फल मिला! बस! हम उधर से भी गए और उन ने भी। यह सब मरने के पहिले सन्तिपात के से लच्छन हैं। हमने वैदक की पोथी में देखा है कि 'प्रतिज्ञा वागअदृस्य दौडधूपी न जीवति, तो न जाने कव कहां पर प्रान निकल जायं, इसलिये चलती बेर मार्ग में अपने लिये एक ठंढी चिता चुनते जायेंगे।

इन्द्र । क्यों रे दमनक ! तू खड़ा खड़ा क्या वड़वड़ा रहा है? ऐ ! तेरे मुख पर एकाएक उदासी कैसे छागई ?

दमनक। (झुंझला कर) केवल आपकी उदासी देखकर मेरे मुखड़े पर भी उदासी छागई।

इन्द्र। (हँस कर) क्या वही तो तेरे सिर नहीं चढ़ बैठी?

दमनक। लच्छन तो ऐसेही जान पड़ते हैं।

इन्द्र । तो अब हमने अपनी वला तेरे सिर टाल कर छुट्टी पाई।

दमनक । (घबराकर) अरे बाबारे ! मरे मरे ! हे महाराज, आप ब्रह्महत्या से भी नहीं डरते? इस गरीब दुर्बल ब्राह्मण का प्रान लेने से आपका क्या भला होगा? हमारी दशा देखकर दया करिये। किसी तरह पीछा छोड़िये। अब हम कभी यहां न आवैंगे। अपराध क्षमा [ ६५ ]करके अपनी अलाय बलाय हमारे सिर से फेर लीजिये। हाय ! हाय ! यह विरह का बोझा कौन ढोताफिरैगा? हम दब मरेंगे,यह हमसे न सम्हलैगा।

इन्द्र । (हँस कर) क्या यह लकड़ी के वामे ने भी गुरु तर है?

दमनक । गुरुवर नहीं तो शिष्यवर अवश्य है।

इन्द्र । तो ले इस झंझट से तेरा छुटकारा होगया।

दमनक । (प्रसन्त होके उछल कर) आपकी जय हाय अब हमारे जी में जी आया (गया)

इन्द्र । अरे दमनक ! अरे यह तो भागा। अहा ! कैसा सूधा बालक है। महर्षियों के स्वभाव भी कैसे उदार और गंभीर होते हैं कि ऐसे ऐसे जड़ के सङ्ग भी माथा खाली करते करते अन्त में उसे चैतन्य बना देते हैं। (ठहर कर) अरे अभी तक इसकी बातों से ध्यान बंटा हुआ था,पर अब फिर वही उदासी सामने घूमने लगी।

(नेपथ्य में)

राग गौरी।

कमलवन सांझ होत कुम्हिलाने।
बिरहताप पावन की सुधि करि चकवा अतिअकुलाने॥
बिकल भये मधुकर रस कारन पंकज माहि समाने।
प्रिय बिछोह की भांतिदुसहदुख और नाहिं जियजाने॥

इन्द्र । हा ! यह किसने कटे पर नोन छिरका? उसने तो अच्छा गाया,पर हमें तो यह चोट पर चोटसी लगी। [ ६६ ]हां क्या कहा? (सोच कर ) बहुत ठीक अव समझे

(प्रिय बिछोह की भांति इत्यादि पढ़ता है)

(द्वारपाल आता है)

द्वारपाल। (आगे बढ़कर) स्वामी की जय होय ।

इन्द्र। (चौंक कर ) क्या है पिंगाक्ष !

द्वारपाल। हे नाथ ! देवताओं के गुरू और स्वर्ग के मंत्री वृहस्पति का भेजा एक दूत आया है।

इन्द्र। क्या संदेसा लाया है?

द्वारपाल। यही कि "आज कल्पवृक्षवाटिका में सब देवता एकत्र होंगे, इसलिए प्रार्थना की है कि सन्ध्या पीछे वहां पर श्रीमान श्री अवश्य अपने सिंहासन पर विराजमान हों।

इन्द्र। अच्छा। उससे कहा कि हमने निमंत्रण स्वीकार किया।

द्वारपाल। जो आज्ञा (गया)

इन्द्र। यद्यपि जव से प्यारी का विछोह भया है तब से हम मक्षा में नहीं बैठे हैं, पर इससे हमारी निन्दा छोड़ कर बड़ाई कोई भी नहीं करता। हमारे ऐसे मनुष्य को किसी अवस्था में भी कर्तव्य से हाथ न बैंचना चाहिये । भरतमुनि के उपदेश का भी यही निचोड़ है। पर क्या करें, चित्त जब विकल होता है तो एक नहीं सुनता। (टहर का) देखो! देखते देखते [ ६७ ]आज का दिन भी बीत गया। नजानै प्यारी बिमा कितने दिनों तक याही जाग जाग कर रात काटनी पड़ेगी। हा ! (उठ कर) तो अब चलें,सभा का समय आ पहुंचा।

(प्रिय बिछोह की भांति इत्यादि पढ़ता हुआ जाता है)

(परदा गिरता है)
इति छठवां दृश्य।




सातवां दृश्य।
(स्थान कल्पवृक्षवाटिका)

(स्फटिक के चौतरे पर जड़ाऊ सिंहासन बिछा है और उसके दोनो बगल रत्नों की दो चौकियों पर दाहिनी और वृहस्पति और बाई ओर कार्तिकेय बिराजमान हैं तथा दोनो पही कतार बांधे हुए देवगण हाथीदांत की कुर्सियों पर बैठे हैं)

विद्याधर। अहो अबै लगि सभामाहिं सुरराज न आये।

किन्नर। सचीबिरह के दुसह ताप तपिकित भरमाये॥