नाट्यसंभव/सातवां दृश्य

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सातवां दृश्य।
(स्थान कल्पवृक्षवाटिका)

(स्फटिक के चौतरे पर जड़ाऊ सिंहासन बिछा है और उसके दोनो बगल रत्नों की दो चौकियों पर दाहिनी और वृहस्पति और बाई ओर कार्तिकेय बिराजमान हैं तथा दोनो पही कतार बांधे हुए देवगण हाथीदांत की कुर्सियों पर बैठे हैं)

विद्याधर। अहो अबै लगि सभामाहिं सुरराज न आये।

किन्नर। सचीबिरह के दुसह ताप तपिकित भरमाये॥ [ ६८ ]सिद्ध। कहो जाय कोउ ढूंढ़ैं बन बन सुरनायक को।

यक्ष। बिना इन्द्र के या सिंहासन के लायक को ॥

गुह्यक। आवत ह हैं घरह धीर अवहीं सुरनायक।

विश्वेदेव। जिनको सहज सुभाव सबै सुखमा-परिचायक॥

अग्नि। यज्ञभाग-भाजन मुरेस जीवन-सुख-सागर ।

वरुण। कित दिलमाये विसरि नेह देवन को नागर॥

धन्वतरि। अवला को बल पतिहि सोऊया विधि अकुलाने।

कुवेर। होनहार बलबान मिलै कछु नहिं पछिताने।

जारि छार करि डारहु दानव-धन समुदाई।

चन्द्रमा। सीतल सुरपुर करहु स्वर्ग की श्री घर लाई॥

अश्विनीकुमार

नसै विरह को रोग शतक्रतु को सबभांतिन।
कर बहुरिहन महामाद मंगल जुरि पांतिन॥

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(नेपथ्य में)

"निसि दिन जुग फर जोरि उनाको हमहुं मनाती"।
(सब कान लगा कर जनते हैं और उर्वशी, मेनका, रंभा, तिलोत्तमा आदि अप्सरागन आकर सिंहासन के सामने दूर खड़ी होती हैं)

सब अप्सरा। (देवताओं को प्रणाम कर)

निसि दिन जुग कर जोरि उमा को हमहुं मनाती।
पुनि सुरपुर सुख करन हेत अभि लाख जनातीं॥

वृहस्पति।

करहु अवै उहार वेगि सुरपुर की श्री को
हरहु सकल संताप सहसलोचन के जी को॥

कार्तिकेय। (शक्ति उठा कर)

अबै असुरकुलनारिन को विधवा करि डारौं।
उठहु उठहु अब वीर सची को बेगि उबारौं॥

सब देवता। (अपने २ शस्त्रों को हाथ में उठा कर एक सङ्ग कहते हैं)

अबै असुरकुलनारिन को विधवा करि डारौं।
उठा उठहु अब वीर सची को बेगि उघारौं।

(सब क्रोध नाट्य करते हैं)

(नेपथ्य में)

हे देवताओं तुम्हीं लोगों के बाहुबल के भरोसे हम अभी तक जी रहे हैं। अहा! इन अमृत से बचनों को सुन [ ७० ]कर हृदय कैसा शीतल हुआ है? (उठहु उठहु अव वीर, इत्यादि पढ़ता हुआ इन्द्र आता है और सब देवता उठ कर प्रणाम करते हैं तथा इन्द्र के बैठने पर सब बैठते हैं)

इन्द्र। (बैठकर और हाथ में वज्र लेकर)

अबै असुरकुलनारिन को विधवा करि डारौं।
उठहु उठहु अव वीर सची को चैगि उवारौं।

(सब देखता अपनार शस्त्र उठाकर क्रोध नाट्य करते हैं)

वृहस्पति। हे पुरंदर! शांत होइए। अब महारानी के उद्धार और राक्षसों के संहार होने में बहुत विलंब नहीं है। क्योंकि भक्तजनों के तीनों तापों के दूर करनेवाले भगवान कमलापति शीघ्रही हमलोगों का क्लेश दूर करेंगे। देखिय-

सोरठा।

हरिपदपदुमपराग वंदी जुग कर जोरि कै।
हेरि सहित अनुराग सकल मनोरथ देत जो।

सबदेवता। (एक सङ्ग) सत्य है! सत्य है!!

इन्द्र। ऐं। अभी तक मुनिवर भरताचार्य ने कृपा क्यों नहीं की? उनके आने में इतना विलंब क्या हो रहा है?

कार्त्तिकेय। वह सुधा सभा में नाट्यशाला की रचना कर रहे हैं। उसे समाप्त करके तुरन्त आवेंगे। आप चिन्ता न करें, वरन तब तक सभा में विराजमान रह कर आप हमलोगों का खेद दूर करें। [ ७१ ] सबदेवता। क्योंकि नाथ ! आपही के मन बहलाने के लिए आज यह सभा की गई है कि जिसमें आपका चित्त प्रसन्न हो और हमलोगों के नेत्र सुफल हो।

(नेपथ्य में)

राग ईमन।

को गुनगाइ सकै तुव माया।
तीनलोक हिय ध्यान धरै नित पाइ अपूरव काया॥
जापै ढरी करी तेहि परो करि निज हाथन छाया।
नौमि भारती भापा बाती सरस्वती विधिजाया॥

इन्द्र। अहा! नाम लेतेही भरतमुनि आ पहुंचे (चौंक कर प्रसन्नता से) ऐं ऐं !! हमारी दाहिनीभुजा क्यों फड़की?

वृहस्पति। हे देवेन्द्र! अब दुर्दिन की अंधेरी रात कट गई। केवल सुखसूरज के उदय होने की देरी है।

सब देवता। बहुत देरी नहीं है, बहुत देरी नहीं है।

(दमनक के सङ्ग वीणा लिए भरतमुनि आते हैं, उन्हें देख ५ इन्द्र के सहित सब देवता उठकर प्रणाम करते हैं और वृहस्पति के समीप उनके वैठने पर सब बैठते हैं। भरत के पीछे दमनक खड़ा होता है)

इन्द्र। मुनिवर। आपका दर्शन कर आज स्वर्गवासी जन अतिशय कृतार्थ हुए।

भरत। हे पुरन्दर! अब तुम अपने मन से खेद दूर करो। [ ७२ ] हम सुधर्ना सभा में नाट्यशाला की रचना कर और पात्रों को वेशविन्यास करने की आज्ञा देकर केवल तुम्हें सम्बाद देने के लिए आए हैं। अब बहुत देर करने का कोई प्रयोजन नहीं है। वत्स! सब देवताओं के सङ्ग चलकर अपने चित्त को प्रसन्न और प्रफुल्ल करो।

इन्द्र। (हर्ष से) अहा! हमारे भाग्योदय होने में अब सन्देह नहीं। क्योंकि जिन सहस्रलोचनों से शोकाश्रु वहते थे, उन्हीं में एकाएक आनन्दाश्रु छागए।

सबदेवता । महाराज ! आपके विरहताय दग्ध हृदय को भरताचार्य निःसन्देह शीतल और प्रफुल्लित करेंगे।

भरत । अच्छा तो अब तुम लोग सुधर्मा सभा में चलकर अभिनय देखा।

(इन्द्र। जो आज्ञा।

(एक ओर से दमनक के साथ भरत और दूसरी ओर से इन्द्रादि देवताओं का प्रस्थान)

इति सातवां दृश्य।