नाट्यसंभव/सातवां दृश्य (2)

विकिस्रोत से

[ ८७ ]

सातवां दृश्य।

(स्थान सुधर्म्मा सभा)*[१]

(इन्द्रादिक देवता आपनेर स्थान पर बैठे हैं)

इन्द्र। महामुनि भरताचार्य्य के इस सजीव नाटक का क्या परिणाम होगा, कुछ समझ नहीं पड़ता। यद्यपि लोग इंसे निरा नाटक बतलाते हैं, जो अभी भरत ने दिखलाया है, किन्तु हजार समझाने पर भी चित्त इसे निरा रूपक नहीं स्वीकार करता। (सोच कर) किन्तु यह क्या। यदि इसे रूपक न माने तो क्या माने ? यहां के रङ्गस्थल में बलि, नमुचि, वजदंष्ट्र, नारद और इन्द्राणी का आना क्योंकर सम्भव है? हा! कुछ समझ नहीं पड़ता कि आज भरत मुनि ने कैसा इन्द्रजाल दर्साया! [ ८८ ] वृहस्पति। निश्चय है कि इस विषम समस्या को अभी भरत या नारद यहां आकर सुलझा देंगे।

(नेपथ्य में बीन की झनकार)

इन्द्र। लीजिए, नाम लेतेही देवर्षि नारदजी आपहुंचे, यह उन्हीं की बीन बजती है।

सब देवता। ठीक है, टीक है।

(नेपथ्य में गीत)
(मेघ देवता कान लगाकर सुनते हैं और इन्द्र आश्चर्य्य नाट्य करता है)
राग विरहिनी।

प्रीतम से कोड जाय कहै रे।
बिन दग्व नहिं परत चैन, मम नैनन नीर बहेरे।।
तरफरात जिय छिन छिन आली,केहि विधि चैन लहर।
पड़ी विकल मंझधार विरदिनी का अब बांह गहरे॥

इन्द्र । अरे! यह तो स्पष्ट इन्द्राणी का वोट है ? तो क्या से भी मिथ्या मान लें: हा, दुर्दैव! (नेपथ्य में पुन: गान) रागहम्मीर।

पिय विन सजनी धड़के छतियां।
नहिं अलहुंभाष उर लाय लिया,
का विसरि गए हमरी बतियां।

[ ८९ ]

नहिं पड़त चैन दाहत है मैन,
छिन छिन कछु करत नई घतियां।
छुटि खान पान व्याकुल है प्रान,
तलफत बीतत सिगरी रतियां॥

इन्द्र। (देवताओं की ओर देखकर) बन्धुवर्ग! क्या यह इन्द्राणी का बोल नहीं हैं? और क्या इसे भी हम भरताचार्य्य की कोई माया समझें? (औत्सुक्य नाट्य)

सब देवता। देवेश! कुछ समझ नहीं पड़ता कि भरत ने आज कैसा जंजाल पसारा है।

(द्वारपाल आता है)

द्वारपाल। (आगे बढ़कर) स्वामी की जय होय। हे मघवन्! एक अवगुण्ठनवती स्त्री के साथ देवर्षि नारदजी आते हैं।

इन्द्र। हे पिंगाक्ष! वह स्त्री कौन है?

पिंगाक्ष। महाराज! वह अभी आपके सन्मुख उपस्थित होगी।

इन्द्र। अच्छा, देवर्षि को सादर ले आ।

पिंगाक्ष। (जो आज्ञा)

(जाता है और नारद तथा अवगुण्ठनवती स्त्री के साथ फिर आता हैं)

इन्द्र। (नारद के साथ घूंघट काढ़े हुई स्त्री को देखकर) [ ९० ]हे मन! अब तू इतना उतावला ना हो; सम्भव है कि, तेरा संशय अब स्थिरता को प्राप्त होजाय।

पिंगाक्ष। देखिए, देवर्षिजी यद्यपि वनिता के वियोग में हमारे स्वामी सुरेन्द्र की मुखश्री कुछ मुर्झाईसी प्रतीत होती है, तभी बालरवि के समान तेजपुञ्ज, मुखारविन्द चित्त को कैसा प्रफुल्लित कर रहा है।

नारद। ठीक है, शतक्रतु की तेजस्विता ऐसीही है।

(नारद के आने पर सब देवता उठ खड़े होते और प्रणाम करते हैं और इन्द्र उन्हें अपने सिंहासन के दक्षिण-भागमें स्थान देता है। फिर नारद के बैठने पर सब बैठते हैं। अवगुण्ठनवती स्त्री सिंहासन के सामने नारद के समीप खड़ी होतीं है)

इन्द्र। देवर्षिवर्य! आपके आगमन से हम अत्यन्त कृतार्थ हुए।

नारद। (मन में) अवगुण्ठन का माहात्म्यही ऐसा है। (प्रगट) कहो, देवेन्द्र! प्रसन्न तो हो?

इन्द्र। आपके आने पर अप्रसन्नता कहां रह सकती है?

(कनखियों से अवगुण्ठनवती की ओर देखता है)

नारद। (मन में) वाहरे स्वार्थ! अच्छा तो अब इसे क्यों व्यर्थ भूलभुलैयां में भटकावें (प्रगट) क्यों इन्द्र इस, समय हम तुम्हारा क्या उपकार करें?

इन्द्र। इन्द्राणी के अतिरिक्त और हम कौनसी प्रियवस्तु आपसे चाहें? [ ९१ ]नारद। तथास्तु, यह लो। (स्त्री की ओर देखकर) पुत्री पुलोमजे। अब तू अपने मुखचन्द्र को घूंघट घटा से बाहर निकाल, इन्द्र के नैनचकोरों को आनन्द दे।

(इन्द्राणी घूंघट उलट कर मुख दिखलाती है और इन्द्र आतुरता से आगे बढ़ उसे अपने भुजपाश में भर लेता है। फिर दोनों नारद के चरणों में प्रणाम करके सिंहासन पर दाहिने बाएं बैठते हैं)

नारद। इन्द्र! हम यही आशीर्वाद देते हैं कि आज से तुम दोनों में कभी वियोग न हो।

इन्द्र। इसे वरदान भी कहना चाहिये।

सब देवता। अवश्य, अवश्य।

(आकाश मार्ग से फूल बरसातीं और गाती हुईं उर्वशी, रम्भा, तिलोत्तमा, मेनका, घृताची आदि अप्सराएं आतीं और नारद तथा इन्द्रादि देवताओं को प्रणाम करके फिर गाती और नृत्य करती हैं)

सब अप्सरा। (नाचती हुईं)

राग सूहा।

अहा! अपूरब नाटक-सुख की रासी।
सब सुख दायक, परिचायक मोह विनासी॥
सुभ पवन बहे, मंगल नव कुसुम फुलाने।
जहं प्रेमी जन के मन मधुकर भरमाने॥

[ ९२ ]

 सब मिटै आप सन्तापं, सदा सुख होवै।
छिन में यह मन की सब व्याधिनको खोवै॥

इन्द्र। अहा! इस समय तुम लोगों ने अच्छी नाटक की महिमा गाई।

(आकाश मार्ग में महा प्रकाश होता है और सब उधर देखने लगते हैं)

(आकाशवाणी उसी राग में)

ह्वै मगन लोकत्रय वासी नव रस भीने।
पावैं मन चीते, या अभिनय के कीने॥
मुद मङ्गल या घर घर सदा नवीने।
दुख दारिद मिटै, रहै सुख सदा अधीने॥

(प्रकाश के साथ आकाशवाणी का अवसान)

इन्द्र। अहा! यह तो भगवती वागीश्वरी ने आशीर्वाद दिया।

नारद। सत्य है, नाटक का ऐसाही महात्म्य है।

(सब अप्सरा गाती हैं)

राग ईमन।

 जय जयति जय वानी, भवानी, भारती, सुखकारिनी।
जय जय सरस्वति, भामिनी, भाषा, कलेस बिदारिनी॥
कवि कमलमुख में हरखि निसि दिन रुचिर मोद विहारिनी।

[ ९३ ]

संगीत अरु साहित्य की महिमा महा विस्ता रिनी॥

सब देवता। (हाथ जोड़ कर ऊपर देखते हुए)

जय जय वीनापानि, सरोजबिहारिनि माता।
नाटकरूपिनि, देवि, करौ नित सुखद प्रभाता॥
सब की रुचि या माहिं होय, सोई वर दीजै।
कृपा कटाछनि हेरि, चेगि दुख परि हरिलीजै॥

(आकाशवाणी)
ऐसाही होगा, ऐसाही होगा।
(अप्सराएं गाती हैं)

राग विहाग।

मिले, दोउ हरखि भरे अनुराग।
विहंसि बिहंसि चितवत चख चंचल अरसि परसि हिय पाग॥
यह जोरी जुग जुग चिरजीवै, प्रेम बीज जिय जाग॥
सहज सनेह सने सुख सेवहिं, निबहै सदा सुहाग॥

इन्द्र। अरी। हमारा सुख चाहनेवालियों! इस समय तुम लोगों की बधाई से हम बहुतही प्रसन्न हुए।

(सभों को आभरण प्रदान करता है)

सब अप्सरा। (अलङ्कार लेकर प्रणाम करके पहिरती हुईं) स्वामी की जय होय। महाराज इसी दिन के लिए हम सब ने भगवती उमा की आराधना की थी [ ९४ ]सो भगवती की दया ने हमलोगों के मन चीते होगए।

(गाती हैं)

राग कलांगड़ा।

भागतें पायो सुदिन सुहायो।
कृपा कटाछनितें देवी के भयो अहा, मनभायो॥
फलै वही वरदान वेगि, जो निज मुख बानी गायो।
सहित सनेह चहूंदिसि घर घर बाजहिं चहुंरि बधायो

(नेपथ्य में)

भगवती भवानी और भारती की दया से ऐसाही होगा।

(सब कान लगा कर सुनते हैं और दमनक तथा रैवतक के साथ भरतमुनि आते हैं। इन्द्रादिक देवता उठकर प्रणाम करते हैं और नारद के बगल में भरत के बैठने पर सब अपने स्थानों पर बैठते हैं। भरत के बगल में दमनक और रैवतक खड़े होते हैं)

भरत। कहो, देवेश! अब और कौनसा खेल दिखलाया जाय।

इन्द्र। मुनिराज! आप धन्य हैं। आपने आज जैसा सजीव नाटक दिखलाया, उसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे वाम भाग में सुशोभित है। इससे बढ़कर और कौन खेल होगा?

सब देवता। कोई नहीं, कोई नहीं। [ ९५ ] दमनक। (चारों ओर आंखें फाड़ फाड़ कर देखता हुआ आपही आप) अहा! गुरूजी की कृपासे वह तमाशा देखा कि जिसका नाम! जो भाग गए होते तो यह आनन्द सपने में तो क्या, मर कर इस वर्ग में आने पर भी कदाचित न मिलता। अहा!

नाटक! नाटक!! नाटक!! नाटक!!!
सुख का हाटक, रस का फाटक!!!
नाटक में है, कैसा मजा।
जैसे घी का लड्डू मीठा॥

(लाठी पर ताल देकर गुनगुनाता हुआ)

 धिन्ता, धिनान्ता, ताधिन्, धिना।
और नहीं कुछ नाटक बिना॥
धिनक् धिनक्, तक, धिन्, ताक, ताक।
नाटक बिना है, सब रस खाक॥
ताधिनाधिन्, ताधिनाधिन्, ता।
नाटक का रस पेट भर खा॥
धिन्धिना, धिन्धिना, धिन्धिना, ना।
मजा कहां है, नाटक बिना॥

(सब उसकी अङ्गभङ्गी को देख मुस्कुराते हैं)

इन्द्र। अरे, दमनक! जरा, तू तो कुछ गा!

भरत। वह उजड्ड बालक है, कुछ चपलता न कर बैठे।

इन्द्र। इस समय इसकी सब चपलता क्षमाई है। [ ९६ ](दमनक से)हां! कुछ गा, जो तेरे जी में आवै)

दमनक। जो आज्ञा, सुनिए।

राग यथारुचि।

हम कहा कहैं, या सुख सरबस की धाता।
मन मचल जात घूमैं चक्करसा माथा॥
सुधि बुधि बिसरी, मर गई बिथा कित भाई।
जग से तजि नाता बने, मूढ़ सौदाई॥
फूलो आवत है पेड़, हरख न समाता।
हम यों अचेत, ज्योँ कर मौत से बाता॥

(अमराओं की ओर देखकर)

मन के हजार टुकड़े होगए छटा से।
घूमत हैं नैना इनके सुघर पटा से॥
जो बिरह सची को सहै इन्द्र मन मारे।
तो नित यह कौतुक दमनक आइ निहारै॥

भरत। दुर, मूर्ख क्या बक रहा है।

इन्द्र। (भरत से) इस समय में कुछ न कहिए, यह आनन्द में भरपूर डूब रहा है। (दमनक में) वाह रे, दमनक! तेरे भोलेपन से हम बहुत ही प्रसन्न हुए। ले मांग! अब क्या चाहता है।

दमनक। (उछल कर बगल बजाता हुआ) आपकी जय होय। हे अप्सरा-मनरंजन। जो आप मुझपर प्रसन्न [ ९७ ]हैं तो कृपा कर हमको भी स्वर्ग में दो अंगुल जगह दीजिए।

इन्द्र। ऐसाही होगा। पर अभी तू कुछ दिन मुनिवर भरताचार्य्य के पास रहकर संगीत और साहित्य विद्या में परिपक्व होले, फिर मर्त्यलोक छोड़ कर तू यहाँ आवेगा और गंधर्वों का राजा होकर सदैव नन्दन बन में अप्सराओं के साथ विहार किया करेगा। (रैवतक की ओर उंगली उठा कर) और यह तेरा सहचर रैवतक भी देवता होकर तेरा सहचरही बना रहैगा।

दमनक और रेवतक। (प्रणाम करके) सुरेश्वर की जय होय।

इन्द्र। (भरत से) आज जैसा अद्भुत कौतुक आपने दिखलाया, इनके रहस्य को कृपा कर अब प्रगट करिए कि क्योंकर शची की प्राप्ति हुई?

भरत। सुनिए। भगवती वागीश्वरी से नाट्यविद्या को पाकर हम इसी सोच विचार में उलझे हुए थे कि अब कौनसा रूपक दिखला कर इन्द्र को प्रसन्न किया जाय। इतनेही में हमने आकाश मार्ग से देवर्षि नारदजी के साथ शची को उतरते हुए देखा। बस फिर क्या था, हमने देवर्षि से अपना अभिप्राय कहा, उन्होंने भी उसे स्वीकार किया। फिर हमने बलि [ ९८ ]का रूप धरा, रैवतक और दमनक नमुचि और वज्रदंष्ट्र बने और जिस भांति नारदजी ने बलि के पास जाकर इन्द्राणी का उद्धार किया था, वही रुपक ज्यों का त्यों तुम्हें दिखलाया गया।

इन्द्र। ओहो! इनमें इतना आनंद आया! तभी! अस्तु अब सब बात समझ में आगई। किन्तु हां यह तो बतलाइए कि दैत्यनारियां कौन बनी थीं?

भरत। स्वर्ग की अप्सराएं। अस्तु अब यह बतलाओ कि और क्या कर हम तुम्हें प्रसन्न करें?

इन्द्र। मुनिवर! इससे बढ़कर हमारी प्रसन्नता और किससे होगी? तथापि यदि आप प्रसन्न और अनुकूल हैं तो दया कर यह वरदान दीजिए-

असत काव्य का छोड़ि, सबै कवितारस पागैं।
त्यागि भांड़ के खेल, रागरागिनि अनुरागैं॥
काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, दुरजन सब भागैं।
मिलैं परस्पर सहित हेत सब जन हित लागें॥
काव्य कला रत होहिं जग, तिमिर मानसिक मेटि जन।
सदा सरस पीयूष रस करैं पान लहि मानधन॥

और श्री

नसै फूट, सब जन निजत्व को अब पहिचानै।
त्यागि मूढ़ता, मोह, छोह सबहीं करि जाने॥

[ ९९ ]

विद्या, विनय, विवेक, बुद्धि, वल, वैभव, आनै।
पराधीनता मेटि, होहिं स्वाधीन सयानै॥
करि उन्नति, अवनति परिहरैं, कुसल बनिज व्यापार में।
निज नाम उजागर करहिं जन, हिलि मिलि सब संसार में।

भरत। ईश्वरानुग्रह ने ऐसाही होगा। और यदि सांसारिक जन नाटक विद्या पर पूर्ण श्रद्धा करके इसमें कुशल होंगे तो उन्हें सभी अभिलषित पदार्थ अनायास प्राप्त होंगे। क्योंकि नाटक की महिमाही ऐसी है। देखो:-

जैसी सुख सरिता बहै, नाटक माहिं सुजान।
वैसी सुखद, न वस्तु है, तीन लोक में आन॥

नारद। सत्य है। और हम भी नाटकप्रेमियों को कुछ वरदान देते हैं। वह यह कि "परस्पर विरोध रखनेवाली लक्ष्मी और सरस्वती, जिनका एकत्र अवस्थान अत्यन्त दुर्लभ है, नाटकप्रेमियों पर अनुग्रह करके परस्पर का वैमनस्य त्याग, सम्मिलित होकर उनके घर में निवास करें।

सब। देवर्षि के वचन अवश्य सत्य होंगे।

(धीरे धीरे परदा गिरता है)

इति

नाट्य सम्भव रूपक समाप्त हुआ।

  1. * अङ्कावतार के अभिनय के समय जिस प्रकार सब देवता बैठे थे, उसी भांति बैठे हों, और वहीं पर इस सातवें दृश्य का अभिनय हो।