नाट्यसंभव/अङ्कावतार

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[ ७३ ]

॥श्रीः॥

 

नाट्यसम्भव

 

-:का:-

 

अङ्कावतार*[१]
(स्यान सुधर्ना सभा के सामने रङ्गशाला)(१)
(रङ्गशाला का परदा उठता है और गन्धमादन पर्वत के एक सप्रशस्त शङ्ग पर दैत्यराज बलि टहलता हुआ दिखलाई देता है, जिसे देख देवता बड़े चकित होते हैं)

बलि। (आपही आप) क्या कारण है कि हमारा दूत ममुधि अभी तक इस बात की साध लेकर न आया कि इन्द्राणी के हरे जाने से देवताओं-विशेष कर इन्द्र की अब क्या दशा है और स्वर्ग का विजय कर लेना अव कितना सहज है! (ठहर कर टहलता हुआ) अहा! वह दिन भी हमारे लिए कैसे आनन्द का था कि जिस दिन हम गुरुबर शुक्राचार्य की संमति [ ७४ ]से कुछ चुने हुए दैत्यों को लेकर धड़धड़ाते हुए वर्ग में घुस गए और जब-तक देवतागण सामना करने के लिये तैयार हो,इन्द्राणी को हरण करके अपने शिविर में में लौट आए। ऐसा करने से एक तो इन्द्र से उसकी पहिली करनी का भरपूर बदला लेलिया गया और दूसरे यह समझा गया कि जब स्त्री के हरे जाने से वह बिल्कुल वेकाल होजायगा और उसके अकर्मण्य होने से देवताओं के भी हाथ पैर हीले होजायंगे तब स्वर्ग कालेलेना हमारे लिए बहुतही सहज होगा किन्तु नमुचि के लौटने में इतनी देर क्यों होरही है?

(द्वारपाल आता है)

द्वारपाल । (आगे बढ़ और बलि को प्रणाम करके) स्वामी की जय होय। दैत्येश्वर! स्वर्ग की टोह लेने के लिए जो नमुचि भेजा गया था, वह वहां का ननाचार ले आया है और द्वार पर ठहरा हुआ स्वामी के दर्शनों की उतावली जतलाता है।

बलि। ( गले से रवनय हार उतार कर द्वारपाल को देता। हुआ) अरे, वज्रदंष्ट्र इस सुरुम्बाद के देने का यह तुझे पारितोषिक दिया जाता है।

वज्रदंष्ट्र। (हार लेकर गले में पहिरता हुआ) आपकी जय होय। भगवान महाकालेश्वर आपको देताओं पर विजय दें। [ ७५ ]बलि। वजदंष्ट्र! तू अभी नमुचि को हमारे पार भेष,क्योंकि उससे मिलने के लिए हम अत्यन्त उत्कंठित हो रहे हैं।

वज्रदंष्ट्र। जो आज्ञा (गया)

नमुचि। (आता हुआ) अहा! हमारे स्वामी का मुख इस समय चिन्तायुक्त होने पर भी कैसा प्रसन्न देख पड़ता है और उस समय तो इस प्रसन्नता की सीमाही न रहेगी, जब हम स्वर्ग विजय कर लेने के सम्बन्ध में सुसमाचार सुनावेंगे (आगे बढ़कर) राजाधिराज दैत्येश्वर की जय होय।

बलि। (हर्ष से ) अहा! नमुचि! तुम भले आए। इस समय हम तुम्हारीही बात सोच रहे थे। (हंसकर ) तुमने स्वर्ग की टोह लगा लाने में इतनी देर क्यों लगाई ? क्या किसी अप्सरा के जंजाल में तो नहीं फंस गए रहे।

नमुचि। प्रभो! आपका दास ( मैं ) स्वामी के कार्य में अवहेला करने या किसी दूसरे जंजाल में भरमने वाला नहीं है। हम तो मायाविद्या से अपने को इस भांति छिपा कर स्वर्ग में गए थे कि हमारे वहां जाने की गन्ध तक किसी देवता ने न पाई होगी। किन्तु देर होने का कारण यह है कि जबतक हमने अली भांति देवताओं का हाल जान न लिया, लौटने [ ७६ ]की इच्छा को मनहीमन दबा रक्खा था।

बलि। हमारे राजनीतिज्ञ दूत के लिए ऐना विचाना बहुतही उचित हुआ।

नमुचि । स्वामी के इस बड़प्पन देने से सचमुच हम आज , धन्य हुए।

बलि। अच्छा, अव यह बतलाओ कि स्वर्ग की क्या अवस्या है?

नमुचि। हमारे पक्ष में वहां की दशा बहुतही अच्छी और अनुकूल है। राजनीति के जिम जटिल मूत्र पर भरपूर विचार करके इन्द्राणी हरी गई, वह अब फल देने । योग्य होगया है।

बलि। (प्रसन्नता से) ऐसा ! तो वहां का वृत्तान्त स्पष्ट गति से कहा।

नमुचि । जो आज्ञा, मुनिए । वनिता के विरह में इन्द्र अव विल्कुल "नहीं" के बरावर हो रहा है, ऐसी अवस्था में उसके किए कुछ भी न होगा। तो जवकि राजा कीही यह शोचनीय दशा उपस्थित है, तव उसके अनुचरों की क्या लामर्थ्य, जो वे कुछ करधर सकेंगे! तात्पर्य यह कि यह अवसर स्वर्ग पर चढ़ाई करने और उसे बात की वात में विना परिश्रम लेलेने के लिए सब शांति अनुकूल और उपयुक्त है।

बलि। (प्रसन्नता नाट्य करता हुआ) आज इस ससम्वाद [ ७७ ] सुनाने के लिए तुम्हें हम अपनी शतनी देकर पुरस्कृत

नमुचि। (शतघ्री लेकर अभिवादन करता हुआ) जय होय दैत्येश्वर की। प्रभो! आप जैसे प्रतापी नीर अपने अनुयायी वीरों का उत्साह इसी भांति बढ़ाते हैं।

(नेपथ्य में वीणा की झनकार)
(बलि और नमुचि कान लगा कर सुनते हैं)

बलि। यह तो देवर्षि नारद की बीणानी प्रतीत होती है।

नमुचि। जी हां! किन्तु इस समय इनका यहां आना हमें तो नहीं सुहाया।

बलि। यह क्यों।

नमुचि। इसलिए कि यह देवताओं के पक्षपाती हैं, अतएव देवर्षि कहलाते हैं, सो इस समय इनका यहां आना स्वार्थरहित कदापि न होगा। वलि। यह ते तुम ठीक कहते हो, किन्तु इनके तपोबल के आगे त्रैलोक्य में कौन ऐसा है जो इनका अनादर कर सके!

नमुचि। यही तो कठिनाई है।

(नेपथ्य में चीन के साथ खम्माच रागिनी में)

समुझ मन कहा होइगो आगे।
अबहीं तो समुझत नहिं एकहु, एरे मूढ़ अभागे॥

[ ७८ ]

कियो निकास काम मनमानो, मोह यारुनी पागे।
कहा होइगो, सो नहिं जानत, या सुपने ते जागे॥
जगतजाल तें होइ लिवरो, मिलै सुगति टुक मांगे।
असरन सरन गुबिन्द चरन तें,जो अनुरागहिलागे॥

(दोनों कान लगाकर सुनते हैं)

नमुचि। देखिए! इस निर्गुण भजन में स्वार्थ की बातें कितनी भरी हुई हैं ?

बलि। तथापि देवर्षि का उपकार इन वंश पर जैसा है, उसके लिए ये सर्वथा पूजा करने योग्य हैं। नमुचि। (आपही आप) ऐती दुर्वद्धि ने तुमको घेरा है तो तुम अपना कोई न कोई काम आज बिना बिगाड़े नहीं रहते।

(द्वारपाल आता है)

द्वारपाल। ( आगे बढ़कर) महाराज की जय होय! हे प्रभू द्वार पर देवर्षि नारद उपस्थित हैं।

बलि। उन्हें अति शीघ्र आदर से लेआव।

द्वारपाल। जो आज्ञा।

(जाता है और नारद के साथ तुरन्त आता है)

द्वारपाल। देवर्षिवर! यह देखिए, दैत्यराज आपके दर्शने के लिए किस उत्कंठाते आगे बढ़ रहे हैं।

नारद। तूने सत्य कहा, वज्रदंष्ट्र! (मन में) अहा! देवताओं का मानमर्दन करनेवाला दैत्यकुलभूषण बलि [ ७९ ] बड़ाब्रह्मण्य है। यद्यपि हमारे आने से कुढ़कर इसके राहचर नमुचि ने इसे बहुत कुछ ऊंच नीच समझाया, जोकि हमने ध्यान से जान लिया है, पर फिर भी यह ऐसी भक्ति से हमसे मिला चाहता है कि इसे हृदय से धन्यवाद दिए बिना रहा नहीं जाता।

वज्रदंष्ट्रा। (आगे बढ़कर) स्वामी की जय होय! हे प्रभू! तपोधन देवर्षिवर्य्य आते हैं।

बलि। (आगे बढ़कर ) देवर्षि महेन्दय को हम प्रणाम करते हैं।

नमुचि। तपोधन! हमभी मत्था टेकते हैं।

नारद। (नमुचि की ओर न देखकर) दैत्यकुलभूषण बलिराज! रमापति दिन २ तुम्हारा प्रताप बढ़ावें।

वज्रदंष्ट्र। (आपही आप) अहा ! ऋषिजी ने बहुत अच्छा आशीर्वाद दिया ( गया )

नमुचि। (आपही आप ) ओहो! यह आशीर्वाद तर बढ़ा बिलक्षण है।

बलि। (प्रणाम करके) ब्रह्मनन्दन! यह तो आशीर्वाद नहीं, आपने वरप्रदान किया।

नारद । दैत्यकुलदीपक, भक्तराज, प्रल्हाद के महाप्रतापी ब्रह्मण्य पौत्र को जो कुछ दिया जाय, थोड़ा होगा।

बलि। इस रूपा से हम अत्यन्त कृतार्थ हुए। देवर्षिवर! कृपा कर इस आसन पर विराजिए। .. [ ८० ] नारद । (बैठकर) दैत्यराज ! तुम भी विराजो।

बलि। जो आज्ञा।

(नारद के सामने विनीत भाव से बलि बैठता है, उसके बगल में नमुचि खड़ा होता है और यह-दृश्य देखकर इन्द्रादिक देवता बड़े चकित होते हैं)

नारद। दैत्यराज! आज इस समय हम तुम्हारे पास किसी कार्यवश आए हैं।

नमुचि। (आपही आप) जोहनने साया था, सोही भया!

बलि। (हाथ जोड़े हुए) आज्ञा कीजिए।

नमुचि । ( आपही आप ) इतनी उदारता अच्छी नहीं।

नारद। भक्तराज, ब्रह्मण्य, प्रल्हाद के वंश में जन्म लेकर तुमने यह क्या बीरोचित कर्म किया, जो एक अबला पर बल प्रयोग किया!

नमुचि। (मनही मन) हाय हाय! वही इन्द्राणी का प्रसङ्ग जान पड़ता है कि इतना परिश्रम व्यर्थ जायगा और बना बनाया सारा खेल चौपट होगा।

बलि। (आश्चर्य से) हमारे कुल में अभी तक अबलाओं पर । बलात्कार करनेवाला कोई नहीं हुआ, फिर हमारे लिए यह उपालंभ क्यों? नारद। क्यों, तुम बलपूर्वक इन्द्राणी को हरण करके नहीं ले आए हौ?

नमुचि। (आपही आप) अब क्योंकर हम अपने मन [ ८१ ] को विश्वास दिलावें कि हमारा सोचना ठीक न था!

बलि। हमारे जान यह बलात्कार नहीं, अदले फा : बदला है।

नमुचि । (आपही आप) खूब कहा, और सचही तो कहा। देखें इसका क्या उत्तर मिलता है।

नारद । यह क्योंकर।

बलि । आश्चर्य्य है कि आपको वह बात भूल गई ! अस्तु, सुनिए। जिस समय वाराह भगवान से हिरण्याक्ष के नारे जाने पर हमारे प्रपितामह हिरण्यकश्यप तप करने के लिए मन्दराचल पर चले गए थे, उस समय सूना घर देस कपटी इन्द्र हमारी प्रपितामही (हिरण्यकश्यप की स्त्री) को दैत्य नारियों के साथ बांधकर स्वर्ग को नहीं ले चला था?

नारद। अवश्य इस बात को हम स्वीकार करते हैं। किन्तु क्या तुम्हें यह बात अभी तक नहीं विदित हुई है कि दुराचारी इन्द्र की इस कर्तृत पर हमें बड़ी घृणा हुई थी और हमने बीच मार्ग में पहुंच, उसे धिक्कार कर तुम्हारी परदादी कयाधू को अन्य दैत्यनारियों के सहित उसके हाथ से छुड़ा लिया था।

बलि। (नम्रता से) यह बात हमें स्मरण है और जब तक हमारे कुल का अस्तित्व संसार में रहेगा, हमारे कुल में कोई भी क्यों न रहे, आदर के साथ [ ८२ ]आपके इस उपकार को मानेगा।

नारद । यह उत्तर तुमने प्रतापी बलि के योग्यही दिया।

बलि । और यह यातनी हम जानते हैं कि आपही की अनन्त कृपा के कारण दैत्यकुटपावन हमारे पितामह प्रल्हादजी ने जन्म लिया था।

नारद । तो तुम हमारे उम उपकार को नानते हो? नमुचि। (आपट्टी आप ) बस, अब मतलब निकला चाहता है।

बलि। अवश्य । और हमारे वंश में जो होगा, आपकी इस कृपा को कभी न भूलेगा।

नारद। तो हमारे उम उपकार का इस समय तुम कुछ प्रत्युपकार कर सकते हो?

नमुचि। (आपही आप ) अथ इतनी भूमिका क्यों?

बलि। आधा कीजिए।

नमुचि। (आपही आप) ऐसी उदारता से बुरा परिणाम होना चाहता है।

नारद। जिस शांति हमने इन्द्र के हाथ मे कयाधु को छुड़ाया था, उसी भांति आज तुम्हारे हाय से हम इन्द्राणी को छुड़ाया चाहते हैं। इन्द्र से तो बदला तुमने चुकाही लिया, फिर व्यर्थ अबला को अवरुद्ध कर रखना तुम्हारे जैसे प्रतापी वीर के लिए शोभा नहीं देता। [ ८३ ] नमुचि। (आपही आप) चलो, स्वार्थ की बात अव खुल गई, देखें, दैत्यराज इसका क्या उत्तर देते हैं।

बलि। आपका पूर्व उपकार स्मरण कर हमें यही उचित जान पड़ता है कि बिना कुछ सोचे विचार हम आपकी इस आता को सिर माथे पर चढ़ावें।

नमुचि। (आपही आप) और अपने पैरों में आप कुल्हाड़ी मारो!

इन्द्र। धन्य, देवर्षि! तुम सच मुच देवर्षि है।

सबदेवता। इसमें क्या सन्देह है।

नारद। तो अब विलंब करने का कोई प्रयोजन नहीं, तुम झटपट इन्द्राणी को हमारे हवाले करो और इस उदारता के लिये हम तुम्हें हृदय से आशीर्वाद देते हैं कि तुम एक दिन अचिन्त्यपूर्व अभ्युदय को पाओगे। बलि। आपका आशीर्वाद अवश्य वर का काम करेगा। (नमुचि से) तुम अभी जाकर बड़े आदर के साथ इन्द्राणी को लेआओ।

नमुचि। जो आज्ञा (आपही आप) हा! इस अनर्थ कर्म के संपादन करने के लिये हम्ही रहे। (गया)।

बलि। आप निश्चय जाने, केवल अवरुद्ध कर रखने के अतिरिक्त और इन्द्राणी का कुछ भी अपमान नहीं किया गया है।

नारद। तुम्हारे जैसे महाप्रतापी से अबला का अपमान [ ८४ ]कदापि नहीं होसकता।

सबदेवता। देवर्षि के बचन सत्य हैं।

इन्द्र। ऐसे उदारहृदय शत्रु को हृदय से धन्यवाद दिए बिना नहीं रहा जाता।

सबदेवता। सत्य है, सत्य है।

(नेपथ्य में-राग मारू)

विरह की पीर सही नहिं जाय।
नैनन तें जलधार बहत है, निकरत मुख ते हाय॥
चलत उसासें प्रलयकारिनी मदन तपावत आय।
बिकल प्रान अकुलान लगे अति निकसन चहत पलाय॥

इन्द्र। हाहन्त, हाहन्त! यह तो इन्द्राणी के बोल हैं।

(घबराकर उठा चाहता है)

वृहस्पति। सावधान, सुरेश। यह नाटक है।

इन्द्र हाय! नाटक में इतनी सजीवता! हे भरताचार्य्य। तुम धन्य हौ।

(नेपथ्य में पुनः गान)
राग विरहिनी।

पिया बिनु मदन सतावत गात।
हाय, बिरहिनी ते बहुमांतिन सवै करत उत्तपात॥
मदन, वसंत, चंद्र, अरु चांदनि, सुरभि पवन सबभांति।
कोकिल बन उपवन, सर, सरिता अरुनलवककी पांति॥

[ ८५ ]

सबै ताकि उर सूल चलावत, दयान आवत नेक।
हा विधिना विरहिनी अभागी मैंही जग में एक॥
इन्द्र। नहीं प्रिये! दूसरा अभागा मैंभी अभी जीता हूं

(लम्बी सांस लेता है)

(विरहिनियों कासा भेस बनाए दैत्यनारियों से घिरी हुई इन्द्राणी आती है, और उसके पीछे २ सिर झुकाए हुए नमुचि)

इन्द्राणी। देवर्षि! मैं आपके घरणों में प्रणाम करती हूं।

(सब देत्यनारी सिर झुकाती हैं)

नारद। पुलोमजे! चिरससिनी भव।

(इन्द्राणी को देखतेही इन्द्र बावला हो आसन से उठ खड़ा होता है और वृहस्पति उसका हाथ थाम कर बैठाते हैं)

वृहस्पति। देवेन्द्र! सावधान होवो! यह भरताचार्य्य की ज्वलन्त कृति-नाटक है।

इन्द्र। (बैठकर) हा! पुलोमजे! यह दृश्य क्या सत्य है! क्या देवर्षि इसी भांति तुम्हारा उद्धार करेंगे?

नारद। इन्द्राणी। तेरा यहां किसी प्रकार अपमान तो नहीं हुआ?

इन्द्राणी। केवल पतिवियोग और स्वर्ग से यहां लाई जाकर अवरुद्ध रहने के अतिरिक्त और मेरा किसीने कुछ भी अपमान नहीं किया।

बलि। (नारद से) अब तो आप सन्तुष्ट हुए होंगे। [ ८६ ]नारद। (उठकर और बलि को हृदय से लगाकर)! देत्यराज! तुम्हारे इस महत्व की हम रोमरोम ने प्रशंसा करते हैं।

बलि। अब हम कृतार्थ हुए।

नमुचि। नहीं, बरन अपना काम आप बिगाड़कर हीन हुए

इन्द्र। ऐसे उदार शत्रु में वैर विमाह कर हम भी आज धन्य हुए।

सबदेवता। मचमुच बलि की शतमुख ने प्रशंसा करनी चाहिए।

इन्द्र। अवश्य, अवश्य।

नारद। तो अब हम इन्द्राणी के साथ विदा होते हैं।

बलि! कृपा कर यह तो बतलाते जाइए कि हम देवताओं को निकाल कर स्वर्ग अपने आधीन किया चाहते हैं, इसमें तो आप कोई अडंगा न लगावेंगे न?

नारद। इन बातों से हमें कुछ प्रयोजन नहीं। केवल अबला के उद्धार करने और भक्तराज प्रल्हाद के बंशधर (तुम्हारे) के निर्मल यश में धब्बा न लगने पावे इसीलिए हम यहां आए थे।

बलि। आपका आना हमारे लिए अच्छाही हुआ। (प्रणाम करता है)

नमुची। (आपही आप ) बहुत बुरा हुआ।

(आशीर्वाद देकर एक ओर मे इन्द्राणी के साथ [ ८७ ] नारदजी जाते हैं और दूसरी ओर से नमुचि तथा दैत्यनारियों के साथ बलि)

रङ्गशाला का परदा गिरता है।

इति अङ्कावतार।

  1. * इस 'भवावतार' के पहिले जो छः अङ्क छपे हैं, उन्हें इस (अशावतार) की 'पूर्वपीठिका' और अन्त के सातवे अटू को 'उत्तरपीठिका' समझनी चाहिये।
    (९) सुधर्मासमा भलीभांति सजी हो, इन्द्रादिक देवता, जोकि 'कल्पवृक्षबाटिका में थे अपने अपने स्थानों पर सुशोभित हों और सामने वाली रङ्गशाला' में भरताचार्य इस 'मटावतार' का अभिनय दिखावें ।