नैषध-चरित-चर्चा/६—चिंतामणि-मंत्र की सिद्धि
सुनते हैं, श्रीहर्षजी परम मातृभक्त थे। अपनी माता को वह देवी के समान समझते थे। नैषध चरित के बारहवें सर्ग के इस—
तस्य द्वादश एष मातृचरणाम्भोजालिमौजेर्महा-
काव्येऽयं व्यगलन्नलस्य चरिते सर्गो निसर्गाज्ज्वलः ।
अंतिम श्लोकार्द्ध में श्रीहर्षजी अपनी माता के चरण-कमल में, मधुप के समान, अपना मस्तक रखना स्वयं भी स्वीकार करते हैं। किसी-किसी का कथन है कि माता ही के उपदेश से इन्होंने 'चिंतामणि-मंत्र' सिद्ध करके अद्भत कवित्व-शक्ति प्राप्त की थी। नैषध के प्रथम सर्ग का अंतिम श्लोक, जो हम पहले एक स्थल में उद्धत कर पाए हैं, उसमें श्रीहर्ष ने अपने ही मुख से यह कहा है कि चिंतामणि-मंत्र ही के प्रभाव से वह यह काव्य लिखने में समर्थ हुए हैं। पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने भी एक प्रबंध में लिखा है कि लोग कहते हैं, श्रीहर्ष ने देवाराधना करके अप्रतिम कवित्व-शक्ति पाई थी । चिंतामणि-मंत्र का स्वरूप और उसका फल श्रीहर्षजी ने नैषध-चरित में विशेष रूप
से दिया भी है । देखिए— अवामा वामार्द्धे सकलमुभयाकारघटनाद्
द्विधाभूतं रूपं भगवदभिधेयं भवति यत् ।
तदन्तर्मन मे स्मर हरमयं सेन्दुममलं
निराकारं शश्वज्जप नरपते ! सिध्यतु स ते ।
इस श्लोक से प्रथम मंत्रमूर्ति भगवान् अर्द्धनारीश्वर की उपासना का अर्थ निकलता है ; फिर, हल्ले खात्मक चिंतामणि- मंत्र सिद्ध होता है; तदनंतर चिंतामणि-मंत्र के यंत्र का स्वरूप भी इसी से व्यक्त होता है। चिंतामणि-मंत्र का रूप यह है—
ॐ हीं ॐ
"द्विधाभूतं रूपं भगवदभिधेयं"—से यंत्र का आकार सूचित किया गया है। भगवत् दो त्रिकोणाकृतियों का मेल ही यंत्र है ; यथा—
इसी के भीतर चिंतामणि-मंत्र लिखा जाता है । पारमेश्वर,
मंत्रमहोदधि, शारदातिलक आदि तंत्रों में इसकी साधना का सविस्तर वर्णन है। चिंतामणि-मंत्र का फल सरस्वती के
मुख से श्रीहर्ष जी ने इस प्रकार कहाया है—
सर्वांगीणरसामृतस्तिमितया वाचा स वाचस्पतिः
स स्वर्गीयमृगीदृशामपि वशीकाराय मारायते ;
यस्मै यः स्पृहयत्यनेन स तदेवाप्नोति, किं भूयसा ?
येनायं हृदये कृतः सुकृतिना मन्मन्त्रचिन्तामणिः ।
भावार्थ—जो पुण्यवान पुरुष मेरे इस चिंतामणि मंत्र को हृदय में धारण करता है, वह शृंगारादि समस्त रसों से परिलु त अत्यंत सरस, वाग्वैदग्ध्य को प्राप्तकर के बृहस्पति के समान विद्वान हो जाता है; वह स्वर्गीय संदरी जनों को भी वश करने के लिये कामवत् सौंदर्यवान् दिखाई देने लगता है। अधिक कहने की कोई आवश्यकता नहीं; जिस वस्तु को जिस समय वह इच्छा करता है, उसके मिलने में किंचिन्मात्र भी देरी नहीं लगती।
इसी के आगे जो दूसरा श्लोक है, वह भी देखिए—
पुष्पैरभ्यच्य गंधादिभिरपि सुभगैश्चारुहंसेन मां चे-
निर्यान्ती मन्त्रमूर्ति जति माय मति न्यस्य मय्येव भक्तः ;
सम्प्राप्ते वरसरान्ते शिरसि करमसौ यस्य कस्यापि धत्ते
सोऽपि श्लोकानकाण्डे रचयति रुचिरान कौतुकं दृश्यमस्य ।
भावार्थ—सुंदर हंस के ऊपर गमन करनेवाली मंत्रमूर्ति मेरा पूजन, उत्तमोत्तम पुष्प-गंधादि से, करके और अच्छी तरह मुझमें मन लगाकर जो मनुष्य मेरे मंत्र का जप करता है, उसकी तो कोई बात ही नही; एक वर्ष के अनंतर वह और जिस किसी के ऊपर अपना हाथ रख देता है, वह भी सहसा सैकड़ों हृदयहारी श्लोक बनाने लगता है। मेरे इस मंत्र का कौतुक देखने योग्य है।
चतुर्दश सर्ग में नल को सरस्वती ने जिस समय वर-प्रदान किया है, उस समय के ये तीनो श्लोक हैं। श्रीहर्ष ने सरस्वती ही के मुख से ये श्लोक कहलाए हैं।
इस मंत्र की साधना से सचमुच ही इतनी सिद्धि प्राप्त होती है, इसके उदाहरण वर्तमान समय में तो सुनने में नहीं आए। पर श्रीहर्ष की बात पर सहसा अविश्वास करने को भी जी नहीं चाहता। हम एक ऐसे आदमी को जानते हैं, जिसकी जीभ पर, जात-कर्म-संस्कार के समय, सरस्वती का पूर्वोक्त मंत्र (ॐ ह्वी ॐ) लिख दिया गया था। यह मनुष्य कुछ पढ़-लिख भी गया, और कुछ कीर्ति-संपादन भी उसने किया। पर यह इसी मंत्र का प्रभाव था या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। संभव है, यथाशास्त्र और यथारीति इसकी उपासना करने से विशेष फल होता हो।
परंतु, आश्चर्य है, इसी चिंतामणि-मंत्र की उपासना करने पर भी हमारे एक मित्र को कुछ भी लाभ न हुआ। वह ग्वालि- यर में रहते हैं और रामानुज-संप्रदाय के वैष्णव हैं। आप बड़े पंडित और बड़े तांत्रिक हैं। आजकल का शिक्षित-समुदाय यंत्र-मंत्र की बातों को कुटिल दृष्टि से देखता है, और पुरानी प्रथा के पंडित यंत्र-मंत्रों की समालोचना करना बुरा समझते हैं। तथापि हमको यहाँ पर प्रसंगवशात् इस विषय में कुछ लिखना ही पड़ा । अतः हम दोनो प्रकार के विद्वानों से क्षमा माँगते हैं।
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