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पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/११६

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( ९० ) समय हमें सर्वत्र शिव ही शिव दिखाई पड़ते हैं। उस समय सब जगह सब लोगों के मन में यही विश्वास समा गया था कि स्वयं संहारकर्ता शिव ने ही भार-शिव राज्य की स्थापना की है और वही भार-शिव राजा के राज्य तथा प्रजा के संरक्षक हैं। भगवान् शिव ही अपने भक्तों को स्वतंत्र करने के लिये उठ खड़े हुए हैं और वे उन्हें इस प्रकार स्वतंत्र कर देना चाहते हैं कि वे भली भाँति अपने धर्म का पालन कर सकें, स्वयं अपने मालिक बन सकें और आर्यों के ईश्वरदत्त देश आर्यावर्त में स्वतंत्रतापूर्वक रह सकें । यह एक ऐसी भावना है जो राजनीतिक भी है और भौगो. लिक भी और इसके अनुसार लोग आरंभ से ही यह समझते रहे हैं कि आर्यावर्त में हिंदुओं का ही राज्य होना चाहिए, और इसका उल्लेख मानव धर्मशास्त्र ( २, २२-२३ ) तक में है, और यह भावना पतंजलि के समय ( ई० पू० १८०१ ) से मेधातिथि [आक्रम्याक्रम्य न चिरं त्रत म्लेच्छाः स्थातारो भवन्ति ] और बीसलदेव ( सन् ११६४ ई.) तक बरावर लोगों के मन में ज्यों की त्यों और जीवित रही है [ आर्यावर्त यथार्थं पुनरपि कृतवान् म्लेच्छविच्छेदनाभिः] | इस पवित्र सिद्धांत का खंडन हो गया था और यह सिद्धांत टूट गया था और इसे फिर से स्थापित करना आवश्यक था। और लोगों का विश्वास था कि भगवान् शिव हो इस सिद्धांत की फिर से और अवश्य स्थापना करेंगे, और वे यह कार्य अपने ढंग से अपना संहारकारक नृत्य प्रारंभ करके करेंगे। १. J. B. O. R. S. खंड ४, पृ० २०२ । २. टैगोर व्याख्यान-"मनु और याज्ञवल्क्य" पृ० ३१-३२ । ३. दिल्ली का स्तंभ I. A. खंड १६, पृ० २१२ ।