का पोष्य पुत्र बना हुआ था; और जब उस वर्ग के अत्याचारों का निर्मूलन हुआ, तब उसके साथ साथ उस धर्म का भी अवश्य ही पतन हुआ होगा। प्रारंभिक गुप्तों के समय में बौद्ध धर्म का जो इतना अधिक पतन या ह्रास हुआ था, उसका कारण यही है । भार-शिव राजाओं के समय में उसका यह पतन या ह्रास और भी अधिक बढ़ गया था । बौद्ध धर्म उस समय राष्ट्रीयता के उच्च तल से पतित हो चुका था और उसने अ-हिंदू स्वरूप धारण कर लिया था। उसका रूप ऐसा हो गया था जो हिंदुत्व के क्षेत्र से बाहर था; और इसका कारण यही था कि उसने कुशनों के साथ संबंध स्थापित कर लिया था। कुशनों के हाथ में पड़कर बौद्ध धर्म ने अपनी आध्यात्मिक स्वतंत्रता नष्ट कर दी थी और वह एक राजनीतिक साधन बन गया था । जैसा कि राजतरंगिणी से सूचित होता है, कुशनों के समय में काश्मीर में बौद्ध भिक्ष समाज में उपद्रव और खराबी करनेवाले अत्याचारी और भार-स्वरूप समझे जाते थे। आर्यावर्त में भी लोग उन भिक्षुओं को ऐसा ही समझते रहे होंगे । समाज को फिर से ठीक दशा में लाने के लिये शैव साधुता या विरक्ति एक आवश्यक प्रतिकार बन गई थी। शकों ने हिंदू जनता को निर्वल कर दिया था और उस निर्बलता को दूर करने के लिये शैव साधुता एक आवश्यक वस्तु थी। कुशनों के लोलुपतापूर्ण साम्राज्य- वाद का नाश कर दिया गया और हिंदू जनता में नैतिक दृष्टि से जो दोष आ गए थे, उनका निवारण किया गया। और जब यह काम पूरा हो चुका, तब भार-शिव लोग क्षेत्र से हट गए । शिव का उद्देश्य पूरा हो चुका था, इसलिए भार-शिव लोग आध्यात्मिक कल्याण और विजय के लिये फिर शिव की भक्ति में लीन हो गए । अंत तक उन पर कोई विनय प्राप्त नहीं कर
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