( ६७ ) सका था और न कभी उन्होंने अपने आचरणों को भौतिक स्वार्थ से कलंकित ही किया था। वे शंकर भगवान् और उनके भक्तों के सच्चे सेवक थे और इसीलिये वे अपना सेवा-कार्य समाप्त करके इतिहास के क्षेत्र से हट गए थे। इस प्रकार का संमानपूर्ण और शुभ अंत क्वचित् ही होता है और भार शिव लोग ऐसे अंत के पूर्ण रूप से पात्र थे। भार-शिवों ने आर्यावर्त में फिर से हिंदू राज्य की स्थापना की थी। उन्होंने हिंदू साम्राज्य का सिंहासन फिर से स्थापित कर दिया था, राष्ट्रीय सभ्यता की भी प्रस्थापना कर दी थी और अपने देश में एक नवीन जीवन का संचार कर दिया था। प्रायः चार सौ वर्षों के बाद उन्होंने फिर से अश्वमेध यज्ञ कराए थे। उन्होंने भगवान शिव की नदी माता गंगा की पवित्रता फिर से स्थापित की थी और उसके उद्गम से लेकर संगम तक उसे पापों और अपराधों से मुक्त कर दिया था और इस योग्य बना दिया था कि वाकाटक और गुप्त लोग अपने मंदिरों के द्वारों पर उसे पवित्रता का चिह्न समझकर उसकी मूर्तियाँ स्थापित करते थे। उन्होंने ये सभी काम १. गंगा की प्राचीनतम पत्थर की मूर्ति जानखट नामक स्थान में है ( देखो इस ग्रंथ का दूसरा प्लेट ) । इनके बाद की मूर्विं यमुना की मूर्ति के साथ भूमरा में है, और इसके बाद की मूचियाँ देवगढ़ में मिलती हैं जिनका वर्णन कनिंघम ने A. S. R. खंड १०, पृ० १०४ में पाँचवें मंदिर के अंतर्गत किया है। इन मूर्तियों के सिर पर पाँच फनवाले नाग की छाया है। ये मूर्तियाँ ठीक उसी प्रकार पाखों के भाग में हैं, जिस प्रकार समुद्रगुप्त के एरनवाले विष्णु मंदिर में है । देवगढ़ में का नाम-छत्र अनुपम है और उसके जोड़ का नाग-छत्र ७
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