पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/१४८

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( १२० ) $ ५४. प्रवरसेन प्रथम वह पहला राजा था जिसने प्राचीन सनातनी सम्राटों की उपाधि "द्विरश्वमेधयाजिन्" (दो अश्वमेध यज्ञ करनेवाले ) का परित्याग किया था। प्रायः पाँच सौ वर्ष पूर्व आर्यावर्त के सम्राट पुष्यमित्र शुंग ने तथा दक्षिणापथ के सम्राट श्री सातकर्णि प्रथम ने यह उपाधि कई सौ वर्षों के उपरांत फिर से धारण करना आरंभ किया था। सम्राट प्रवरसेन ने चार अश्वमेध यज्ञ किए थे साथ ही वृहस्पति सव भी किया था जो केवल ब्राह्मण ही कर सकते थे। इसके अतिरिक्त उसने कई वाजपेय तथा दूसरे यज्ञ भी किये थे। भार-शिव लोग सम्राट् की उपाधि नहीं धारण करते थे, परंतु प्रवरसेन ने सम्राट की उपाधि भी धारण की थी और वह इस उपाधि का पूर्ण रूप से पात्र भी था, क्योकि उसने दक्षिण पर भी अपना अधिकार जमाया था ($$-२, १७६ ) और ऐसी सफलता प्राप्त की थी, जैसी मौर्य सम्राटों के उपरांत तब तक और किसी ने प्राप्त नहीं की थी। हमें पता चलता है कि उत्तरी दक्षिणापथ का बहुत बड़ा अंश उसके साम्राज्य के अंतर्गत आ गया था। $ ५५. यद्यपि यह बात देखने में विलक्षण सी जान पड़ती है, पर फिर भी यह तो संभव है कि भारतीय इतिहास की आधुनिक पाठ्य पुस्तकों में अब तक वाकाटक साम्राज्य के संबंध में एक भी पंक्ति न लिखी गई हो, पर यह संभव नहीं था कि पुराणों में राजाओं और राजवंशों के जो विवरण दिए गए हैं, उनमें विध्यशक्ति और प्रवरसेन के राजवंश का उल्लेख न हो। चार चार अश्वमेध यज्ञ करना कोई मामूली बात नहीं थी; और न किसी व्यक्ति का सम्राट की उपाधि धारण करना और अपने आपको मांधाता तथा वसु का सम-कक्ष पुराण और वाकाटक