( १२२ ) होते हैं; और इसलिये चार अश्वमेध यज्ञ करने में ४०-५० वर्ष अवश्य ही लगे होंगे। तीन बातों से इस सिद्धांत का पूर्ण रूप से समर्थन होता है-(१) बिंध्यशक्ति और प्रवीर के उदय का समय जो पुराणों में गुप्तों से पहले और तुखारों के बाद आता है। (२) इस गजवंश के मूल पुरुष के नाम दोनों स्थानों में एक ही हैं; और (३) वाजिमेधों और प्रवीर के बहुकाल-व्यापी शासन का उल्लेख । और इसके साथ वह पारस्परिक संबंध भी मिला लीजिए जो पुराणों में नाग राजवंश और प्रवरसेन में उसके प्रपौत्र के द्वारा स्थापित किया गया है और जिसका मैंने अभी ऊपर विवेचन किया है इस प्रकार जब ये दोनों एक ही सिद्ध हो जाते हैं, तब हमें पुराणों में वाकाटकों का वह सारा इतिहास मिल जाता है जो स्वयं शिलालेखों में भी पूरा पूरा नहीं मिलता। ६५६. इस बात में कुछ भी संदेह नहीं है कि वाकाटक लोग ब्राह्मण थे। उन्होंने बृहस्पति सव किए थे जो केवल ब्राह्मणों के लिये ही हैं और ब्राह्मण ही कर सकते हैं। वाकाटकों का मूल वृहस्पति सव के इस विशिष्ट रूप के संबंध निवास स्थान में कभी कोई परिवर्तन नहीं हुआ-कभी यह नहीं माना गया कि ब्राह्मणों के अतिरिक्त और लोग भी वृहस्पति सब कर सकते हैं। उनका गोत्र विष्णुवृद्ध भी ब्राह्मणों का ही गोत्र है और जो अब तक महाराष्ट्र प्रदेश के ब्राह्मणों में प्रचलित है। इसके अतिरिक्त विंध्यशक्ति को स्पष्ट रूप से द्विज या ब्राह्मण कहा गया है-द्विजः प्रकाशो भुवि विंध्य- १. इस सूचना के लिये मैं प्रो० डी० यार० भांडारकर का अनुगृहीत हूँ।
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