पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/१५४

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अशुद्ध पाठ है ( १२६ ) एक सामान्य नागरिक ने ई० पू० सन् १५८ के लगभग अपने आपको वाकाटक अर्थात वाकाट का निवासी बतलाया है। और इससे सिद्ध होता है कि वाकाट एक बहुत पुराना कसबा था । संभव है कि उस समय भी वहाँ के ब्राह्मणों को इस बात का गर्व रहा हो कि हमारा कसबा द्रोणाचार्य का निवास स्थान है और द्रोणाचार्य भी वाकाटकों की तरह भारद्वाज ब्राह्मण ही थे। ६ ५८. प्राचीन पुराणों में विंध्यक जाति का वर्णन नहीं है। परंतु मत्स्यपुराण के एक स्थान के पाठ की भूल के कारण विष्णु पुराण भी गड़बड़ी में पड़ गया है। मत्स्य- किलकिला यवनाः पुराण में जहाँ आंध्रों की सूची समाप्त हो गई है और उनके सम-कालीन राजवंशों का उल्लेख आरंभ हुआ है, वहाँ अध्याय २७२, श्लोक २४ में लिखा है -तेपुत्सन्नेपु कालेन ततः किलकिला नृपाः । इस पंक्ति के साथ मत्स्य पुराण में इस प्रकरण का अंत हो गया और आगे २५ वें श्लोक से यवन-शासन का वर्णन आरंभ हुआ है जिससे वहाँ कुशन शासन (यौन, यौवन ) का अभिप्राय है। इस वर्णन की पहली पंक्ति को विष्णुपुराण ने किलकिला राजाओं के वर्णन के साथ मिला दिया है; और मत्स्यपुराण की दूसरी पंक्ति यह है-भविष्यन्तीह यवना धर्मतो कामतीर्थतः। विष्णु पुराण के कर्ता ने इन दोनों पंक्तियों का अन्वय इस प्रकार किया है--तेपुच्छन्नेषु कैलकिला यवना भूपतयो भविष्यन्ति मूर्द्धाभिषि- क्तस तेषां विंध्यशक्तिः । इस विषय में भागवत में विष्णुपुराण का अनुकरण नहीं किया गया है और विष्णुपुराण के टीकाकार ने १. E. I. खंड १५, पृ० २६७, २७ वाँ शिलालेख । २. J. B. O. R. S. खंड १८, पृ० २०१ ।