सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/१७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(१४२) ६६३. शिलालेख में देवसेन का जो वर्णन है और जो उसके पुत्र के शासन-काल में उत्कीर्ण हुआ था, उसके बिलकुल ठीक होने का प्रमाण इस बात से भी मिलता शिलालेखों के ठीक है कि उस समय के राजकर्मचारियों और होने का प्रमाण कवियों ने भी उसके ठीक होने का उल्लेख किया है । स्वरूपवान् राजा जिसके पास उसकी सब प्रजा उसी प्रकार पहुँच सकती थी, जिस प्रकार एक अच्छे मित्र के पास' प्रायः भोग-विलास में ही अपना सारा जीवन व्यतीत करता था। यह अपने पुत्र के लिये राज्य छोड़कर अलग हो गया था। इसने अपने सामने अपने पुत्र का राज्या- भिषेक कराया था और इसके उपरांत यह अपना सारा समय भोग-विलास में ही बिताने लगा था। ६ ६४. शिलालेखों आदि के अनुसार वाकाटक इतिहास में एक निश्चित बात यह है कि चंद्रगुप्त द्वितीय के समय में ही पृथिवीषेण प्रथम और रुद्रसेन द्वितीय हुए वाकाटक इतिहास में थे। एक और बात, जिसका पता प्रयाग एक निश्चित बात के समुद्रगुप्तवाले शिलालेख से चलता है, यह है कि समुद्रगुप्त के सम्राट होने से पहले ही सम्राट प्रवरसेन का देहांत हो चुका था, क्योंकि उस शिलालेख में प्रवरसेन का नाम नहीं मिलता। समुद्रगुप्त ने गंगा- यमुना के दोआब के आस-पास के 'वन्य प्रदेश के राजाओं को अपना शासक या गवर्नर और सेवक बनाया था, जिसका १.G. I. पृ० १३ ।