(१७०) कुछ बातें बतला देना आवश्यक जान पड़ता है। अपने साम्राज्य के जिस भाग में वाकाटकों का प्रत्यक्ष रूप से शासन होता था, उसकी सीमा कुंतल की सीमा से मिलती थी। बाद में कुंतल- कर्णाट के प्रबल कदंब राज्य का उत्थान होने पर उसके साथ वाकाटकों के प्रायः जो झगड़े हुआ करते थे, उन्हीं से यह बात प्रमाणित हो जाती है कि दोनों की सीमाएँ मिलती थीं। कुंतल के पड़ोसी होने के लिये यह आवश्यक था कि वाकाटकों का प्रत्यक्ष शासन कोंकण तथा दक्षिणी मराठा रियासतों के क्षेत्र पर होता; और इसका अभिप्राय यह है कि उनका राज्य अवश्य ही बालाघाट पर्वत-माला के उस पार तक पहुंच गया होगा। पूर्व ओर-वाले प्रदेश में आंध्र लोग थे और वे भी वाकाटकों के अधिकार-क्षेत्र के अंतर्गत थे; और कलिंग तथा कोसलवाले भी वाकाटकों का प्रभुत्व मानते थे और उनके अधीन थे। प्रवरसेन प्रथम के समय से पहले और लगभग विंध्यशक्ति के समय में पल्लवों ने आंध्र देश में अपना एक राज्य स्थापित किया था। विंध्यशक्ति की तरह पल्लव भी भारद्वाजगोत्रीय ब्राह्मण थे। उन्होंने भी प्रवरसेन की तरह उसी के समय के लगभग अश्वमेध और वाजपेय आदि यज्ञ किए थे और दक्षिणापथ के सातवाहन सम्राटों के साम्राज्य पर अधिकार करने का प्रयत्न किया था। यहाँ भी उसी प्रकार इतिहास की पुनरावृत्ति हो रही थी, जिस प्रकार पुष्यमित्र शुंभ और शातकर्णि (प्रथम) शातवाहन के समय में हुई थी। पुराणों में पल्लव लोग आंध्र राजा या आंध्र देश के राजा कहे गए हैं, जो आंध्र सहित मेकला पर राज्य करते थे और विंध्य की (अर्थात् विंध्यशक्ति की) संतति कहे गए हैं (६१७६ )। पल्लवों से पहले वहाँ एक और राजवंश का राज्य था जिसनेप्रायःतीन पीढ़ियों तक शासन किया था। वे लोग इक्ष्वाकु
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