( १७१ ) कहलाते थे और ज्योंही सातवाहन वंश का अंत हुआ था, त्योंही उन्होंने अश्वमेध यज्ञ करके यह जतलाना चाहा था कि हम सातवाहनों का राज्य लेने के प्रयत्न में हैं। उनकी राजधानी श्रीपर्वत में थी जिसे आज-कल नागार्जुनी कोंड कहते हैं और जो गंटूर जिले में है। इनका पता उन शिलालेखों से चलता है जो इनके संबंधियों ने खुवाए थे और जो नागार्जुनी कोंड के उस स्तूप में मिले हैं जिसका पता अभी हाल में चला है और साथ ही जग्गइयपेट के शिलालेखों में भी इनका उल्लेख है । विंध्य- शक्ति और पल्लवों के उदय के साथ ही साथ इक्ष्वाकुओं का अंत हो गया था। पल्लव लोग ब्राह्मण थे और उनसे पहले के सात- वाहन भी ब्राह्मण ही थे। दक्षिण में बहुत पहले से ब्राह्मणों का साम्राज्य चला आता था; और वह साम्राज्य इतना प्रबल था कि ज्योंही समुद्रगुप्त ने पल्लवों को परास्त किया, त्योंही पल्लवों के करद तथा अधीनस्थ राज्य कदंब के मयूर शर्मन और उसके पुत्र कंग ने, जो ब्राह्मण थे, यह माननेसे इनकार कर दिया कि दक्षिणी साम्राज्य का नाश हो गया और उन्होंने दक्षिणी साम्राज्य की पुनर्स्था- पना की भी घोषणा कर दी। पर यह ठीक है कि समुद्रगुप्त और पृथ्वीपेण वाकाटक ने उन लोगों की कुछ चलने नहीं दी थी। ६८३. उस समय के उत्तर तथा दक्षिण भारत के इतिहास में मुख्य अंतर यही था कि उत्तरवाले एक अखिल भारतीय साम्राज्य स्थापित करना चाहते थे। अखिल भारतीय सातवाहनोंवाले पिछले साम्राज्य के सयय साम्राज्य की हिंदुओं को जो अनुभव प्राप्त हुआ था, उसी के फल-स्वरूप उनमें यह कामना उत्पन्न हुई थी। उस समय उन्हें यह अनु- भव हुआ था कि जो आक्रमणकारी सदा उत्तर की ओर से आया पावश्यकता
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