पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/२०२

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( १७२ ) करते हैं, उनके सामने दक्षिणी शक्ति ठहर नहीं सकती थी। वे समझते थे कि एक भारत में दो सम्राटों का होना एक बहुत बड़ी दुर्बलता का कारण है । प्रवरसेन प्रथम जो सारे भारत का सम्राट' बना था, जान पड़ता है कि उसमें उसका मुख्य नैतिक उद्देश्य यही था; और उसके उपरांत उसके उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त ने जो इस बात पर संतोप प्रकट किया था कि मैंने सारे भारत को एक में मिलाकर अपने दोनों हाथों में कर रखा है, उसका कारण भी यही था । एक तो कुशन साम्राज्य का जो पुराना अनुभव था और दूसरे भारत के पड़ोस में ही विध्यशक्ति के समय में जो नया सासानी साम्राज्य स्थापित हुआ था, उसके प्रबल हो जाने के कारण जो नई आवश्यकता उत्पन्न हो गई थी, उन दोनों के कारण इस बात की आवश्यकता भी स्पष्ट ही थी। यह आव- श्यकता उस समय और भी प्रबल हो गई थी जब प्रवरसेन प्रथम के समय में सन् ३०० ई० के लगभग कुशन साम्राज्य पूरी तरह से सासानी साम्राज्य में मिल गया था। वाकाटक राजा ने चार अश्वमेध यज्ञ किए थे। महाभारत का दिग्विजय जो चार भागों में ५. पल्लव शिवस्कंद वमन् प्रथम यद्यपि दक्षिण का धर्म-महा- राजाविराज कहलाता था, तो भी उसने कभी स्वतंत्र रूप से अपना सिक्का नहीं ढलवाया था और उसके पुत्र तथा उत्तराधिकारी लोग भी महाराज अर्थात् वाकाटक सम्राट के अधीनस्थ महाराज थे। उस समय 'महाराज' शब्द किसी सम्राट के अधीनस्थ और करद होने का सूचक होता था । शिवस्कंद वर्मन् के उत्तराधिकारियों ने अपने ताम्रलखों में उसे केवल 'महाराज' ही लिखा है। धर्म महाराजाधिराज की उपाधि बहुत ही थोड़े समय तक प्रचलित रही और चेलों श्रादि अर्थात् दक्षिणवालों के मुकाबले में रखी गई थी।