( १७८ ) वाकाटकों ने गंगा-यमुना की जो मूर्तियाँ बनाई थीं, वे इन नदियों की मूर्तियाँ तो थी ही, पर साथ ही गंगा और यमुना के मध्य के प्रदेश की भी सूचक थीं जहाँ इन लोगों ने फिर से सनातन धर्म की स्थापना की थी। भूमरा और नचना में गंगा और यमुना की जो सुंदर और शानदार मूर्तियाँ हैं, वे मानों नाग- वाकाटक संस्कृति का दर्पण हैं । स्वयं वाकाटक लोग भी शारीरिक दृष्टि से बहुत सुंदर होते थे। वायुपुराण की हस्तलिखित प्रति में लिखा है कि प्रवीर के चारों पुत्र साँचे में ढली हुई मूर्तियों के समान सुंदर ( सुमूर्तयः) थे' । अजंतावाले शिलालेख में देवसेन और हरिपेण की सुंदरता का विशेष रूप से वर्णन है। वाकाटकों के समय में अजंता की तक्षण कला और चित्र-कला में मानों प्राणों का संचार किया गया था और अजंता उन लोगों के प्रत्यक्ष शासन में था। परवी वाकाटक काल में भी यह परंपरा बराबर बनी रही। आज-कल के सभी लेखक यही कहा करते हैं कि संस्कृत के पुनरुद्धार के श्रेय की तरह हिंदू-कला के पुनरुद्धार का का इस प्रकार वर्णन है- "गोविंदराज ने, जो की त्ति की मूर्ति था, शत्रुओं से गंगा और यमुना की पताकाएँ, जो बहुत ही मनोहर रूप से लहरा रही थीं, छीन ली और साथ ही वह महाप्रभुत्व का पद भी ( प्राप्त कर लिया ) जो ( इन नदियों से ) प्रत्यक्ष चिह्न के रूप में सूचित होता था।" मिलायो इंडियन एंटीक्वेरी, खंड २०, पृ० २७५ में फ्लीट का लेख जिसमें कहा गया है कि ये चिह्न किसी न किसी रूप में प्रारंभिक गुप्तों से लिए गए थे। (फ्लीट के समय तक नाग- वाकाटक चिह्नों का पता नहीं चला था । ) १. P. T. पृ० ५०, टिप्पणी ३८ ।
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