पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/२०९

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( १७६ ) भी सारा श्रेय गुप्तों को है; पर वास्तव में इसका सारा श्रेय वाकाटकों को ही है। वास्तु-कला की जिन जिन बातों का विकास हमें एरन, उदयगिरि, देवगढ़ और अजंता में तथा उसके बाद भी मिलता है, उन सबका बीज नचना के वाकाटक मंदिरों में मौजूद है; यथा कटावदार जाली की खिड़की, गवाक्षवाला छज्जा, शिखर, लिपटे हुए साँप, मूर्तियों और बेल-बूटों से युक्त दरवाजों के चौखटे, उभारदार शिखर, रहने के घरों के ढंग के चौकोर मंदिर आदि । ( नचनावाले मंदरों के संबंध में देखो अंत में परिशिष्ट क)। ६८७. यह ठीक है कि वाकाटकों के सिक्के चंद्रगुप्त प्रथम के सिक्कों की तरह देखने में भड़कीले नहीं होते थे, पर इसका कारण यह नहीं था कि उन लोगों में कला का सिक्के यथेष्ट ज्ञान या बल नहीं था । बल्कि इसका कारण यह था कि वे लोग पुराने ढरे के थे। वे उन कुशनों के सिक्कों का अनुकरण नहीं कर सकते थे जिन्हें वे देश के शत्रु और म्लेच्छ समझते थे। चंद्रगुप्त प्रथम ने जो कुशनों के सिक्कों का अनुकरण किया था, उसे उन लोगों ने राष्ट्रीय दृष्टि से पतन का सूचक समझा होगा। समुद्रगुप जिस समय अधीनस्थ और करद राजा था , उस समय वाकाटकों के प्रभाव के कारण स्वयं उसे भी उसी पुराने ढर पर चलना पड़ा था और राष्ट्रीय शैली के सिक्के चलाने पड़े थे । १. देखो ऊपर ६६१, पृथिवीपेण प्रथम के सिक्के पर का साँड़ । C. I. M. प्लेट २०, प्राकृति नं. ४ । २. व्याघ्र शैलीवाला सोने का सिक्का, जिस पर वाकाटकों का साम्राज्य-चिह्न गंगा है।