(१८६) होगा । अतः अपने वंश का फिर से उद्धार करने के लिये पृथिवीषेण द्वितीय को बहुत अधिक श्रेय मिलना चाहिए। प्रायः वीस वर्ष के अंदर ही, जब कि हूणों की शक्ति बनी ही हुई थी, वाकाटकों ने अपने राज्य की सीमा उनके राज्य के साथ जा मिलाई थी और पहले को अपेक्षा और भी अधिक शक्तिशाली हो गए थे; और कुंतल, अवंती, कलिंग, कोसला, त्रिकूट,' लाद और आंध्र देश, जो दक्षिण भारत के वाकाटक साम्राज्य में थे, तथा मध्य प्रदेश और कोंकण तथा गुजरात तक पश्चिमी भारत का अंश उनके अधीन हो गया था। उसी समय वल्मी में एक मैत्रक सेनापति ने एक नये राजवंश की स्थापना की थी और सुराष्ट्र के पासवाले प्रदेश पर उसका अधिकार था। जान पड़ता है कि मैत्रक लोग गुप्तों के सेनापति थे, क्योंकि वे गुप्त संवत् का व्यवहार करते थे और संभवतः उनका उत्थान पुष्यमित्र आदि मित्र प्रजातंत्रों में से हुआ था। वे पड़ोसी वाकाटक साम्राज्य के अधीनस्थ और करद रहे होंगे। इस प्रकार सन् ४७०-५३० ई० में वाकाटक लोग मध्यप्रदेश और पश्चिमी भारत को हूणों के आक्रमण से पूरी तरह से बचाते रहते थे। ६६४. गुप्त साम्राज्य का अंत होने पर वाकाटक वंश के भाग्य ने पलटा खाया। जिस समय गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो रहा था, उस समय पृथिवीषेण द्वितीय हरिषेण ने अपने वंश का बिखरा हुआ वैभव किर से एकत्र किया। देवसेन के पुत्र हरिषेण ने समस्त वाकाटक साम्राज्य पाया, जिसमें स्वयं उसके निजी १. उस समय अपरांत ( त्रिकूट) का राजा व्याघ्रसेन था ( एपि- ग्राफिया इंडिका, खंड ११, पृ० २१६ ) जिसे हम वाकाटक संवत् का प्रयोग करते हुए पाते हैं । (देखो श्रागे १०२ की पाद-टिप्पणी)।
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