( १६३ ) का था और इस वंश के लोग ब्राह्मण तथा क्षत्रिय दोनों वर्गों की स्त्रियों के साथ विवाह करते थे। जिस समय वाकाटक देवसेन शासन करता था [वाकाटक के राजति देवसेने] उस समय उसका मंत्री हस्तिभोज था। परवर्ती वाकाटक साम्राज्य की संपन्नता का और अधिक पता उस शिलालेख से चलता है जो गुहा-मंदिर नं० १७ में है। इसे राजा हरिपेण के शासन-काल में उसके एक वाकाटक अधीनस्थ राजा ने विहार के रूप में बनवाया था। उसका वंश नौ पीढ़ियों से चला आ रहा था और जान पड़ता है कि उसका उदय प्रवरसेन प्रथम के शासन-काल में हुआ था । जैसा कि इस वंश के लोगों के नाम से सूचित होता है। यह वंश गुजरात का था। उन, लोगों ने इस विहार को अभिमानपूर्वक 'भिक्षओं के राजा का चैत्य' कहा है और इसे “एक ही पत्थर में से काटकर बनाए हुए मंडपों में रत्न" कहा है। इसमें बनवानेवाले ने एक नयनाभिराम भंडार भी रखा था । ये सब लोग सौंदर्य-विज्ञान के बहुत अच्छे ज्ञाता थे और इनकी कला बहुत ही उच्च कोटि की थी। इसमें कहीं एक ही तरह के दो खंभे नहीं हैं। हर एक खंभा बिलकुल अलग और नए ढङ्ग से बनाया गया है । गुहा नं० १३ में' दीवारों पर १. डा० विंसेंट स्मिथ ने इसी पालिश के कारण गुफा नं. १३ को ईसा से पहले की गुफा माना था । ( History of Fine Art in India & Ceylon, पृ० २७५ )। पर वास्तव में मौर्यों की पालिश करने की कला तब तक लोग भूले नहीं थे। शुंगों और सातवाहनों के समय में उसका परित्याग या तिरस्कार कर दिया गया था और वाकाटक-गुप्त-काल उसका फिर से उद्धार हुअा था । उदयगिरि की चंद्रगुप्त गुहा की मूर्तियों पर और खजुराहो की भी कई मूर्तियों पर मैंने स्वयं वह पालिश देखी है। इस प्रकार की पालिश १३
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