पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/२२७

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(१६७) यथा- .... यह बात उस समय की है जब हरिषेण ने आंध्र को अपने राज्य में मिलाया था। हरि-राम-हरस्मरेंद्रकांति- हरिषेणो हरिविक्रमप्राप्तः (१७) स-कुंतलावंतीकलिंगकोसल...... त्रिकूटलाट आंध्र......... ......पि स्वनिर्देश.... (१८) A.S. W.1.४.१२५. जान पड़ता है कि चालुक्यों के नए वंश का उत्थान बरार के बहुत समीप आंध्र देश में हुआ था । पुलकेशिन के पुत्र कीर्ति- वर्मन् ने कदंबों पर विजय प्राप्त की थी और अपरांत के छोटे छोटे शासकों पर विजय प्राप्त की थी और मंगलेश ने काठच्छु- रियों को जीता था; और जान पड़ता है कि इससे पहले ही वाकाटकों का लोप हो गया था । इसलिये हम कह सकते हैं कि पुलकेशिन् प्रथम के अश्वमेध के साथ ही साथ वाकाटकों का भी अंत हो गया होगा। ऐहोलवाले शिलालेख में जो राजा जयसिंह बल्लभ चालुक्यवंश का संस्थापक कहा गया है ( एपिग्राफिया इंडिका, खंड ६, पृ. १४) न तो उसी की किसी विजय का उल्लेख मिलता है और न उसके पुत्र रणराग की किसी विजय का ही वर्णन पाया जाता है। पहले जिन प्रदेशों पर वाकाटकों का साम्राज्य था (लाट, मालव, गुर्जर, महाराष्ट्र, कलिंग आदि) उन्हीं पर पुलकेशिन प्रथम के उपरांत उसके पुत्रों और पौत्रों ने अपना साम्राज्य स्थापित किया था; और इसका मतलब यही है कि वे लोग काकाटकों के राजनीतिक उत्तराधिकारी थे और इसी हैसियत से अपना दावा भी करते थे। पल्लवों के साथ