पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/२२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( १९८) उनका जो संघर्ष और स्थायी शत्रुता हुई थी, उसका कारण भी यही था; क्योंकि पल्लवों का वाकाटकों के साथ रक्त-संबंध था- वे वाकाटकों की एक छोटी शाखा ही थे राजा जयसिंह बल्लभ के वर्णन ( एपिग्राफिया इंडिका, खंड ६, पृ०४, श्लोक ५) से सूचित होता है कि जयसिंह पहले की सरकार अर्थात् वाकाटकों के शासन-काल का एक वल्लभ या माल के महकमे का कर्मचारी था। जान पड़ता है कि हरिमेण के उपरांत उसके किसी उत्तराधिकारी के शासन-काल में और संभवतः उसके किसी पौत्र के शासन-काल में पुलकेशिन् प्रथम वाकाटकों के क्षेत्र में आ पहुँचा था और उनके साम्राज्य का वैभव तथा पद पाने का दावा करने लगा था। उनके शिलालेखों में वाकाटकों का कोई उल्लेख नहीं है। सन् २४८ ई० वाला संवत् ६१०२. हमें तीन तिथियों का उल्लेख मिलता है जिनमें से दो तो अवश्य ही वाकाटकों की हैं और तीसरी भी वाकाटकों की ही जान पड़ती है। प्रवरसेन प्रथम के वाकाटक सिक्कों पर के सिक्के पर ७६ वाँ वर्ष अंकित है (६३०)। संवत् रुद्रसेन के सिक्के पर १०० वाँ वर्ष अंकित है(६६१)। ये दोनों संवत् निस्संदेह रूप से वाकाटकों के ही हैं। इसके सिवा महाराज भीमसेन का शिला- लेख है जिस पर ५२ वाँ वर्ष अंकित है (६८९)। प्रवरसेन प्रथम ने स्वयं साठ वर्षों तक राज्य किया था। अतः उसके तथा उसके उत्तराधिकारियों के सिक्कों पर जो संवत् मिलते है, उनकी गणना का प्रारंभ पहलेवाले शासक के समय से अर्थात् प्रवरसेन