( १६६ ) प्रथम के पिता के राज्याभिषेक के समय से हुआ होगा; और गुप्तों का जो काल-क्रम हमें ज्ञात है और उसके साथ वाकाटकों के काल-क्रम का जो मेल मिलता है, उसके अनुसार हम कह सकते हैं कि प्रवरसेन प्रथम के पिता का राज्याभिषेक तीसरी शताब्दी के मध्य में हुआ होगा। ऊपर हमने जो काल क्रम बतलाया है, उससे पता चलता है कि वाकाटकों का उदय सन् २४८-२४६ में हुआ था । प्रवरसेन प्रथम ने तो अवश्य ही इस संवत् का व्यवहार किया था और अब यदि हमें बाद की शताब्दियों में भी वाकाटक साम्राज्य के किसी भाग में इस संवत् का उपयोग होता हुआ मिल जाय तो हम कह सकते हैं कि यह वही चेदि संवत् था जिसे कुछ लेखकों ने भूल से त्रैकूट संवत् कहा है। ६१०३. महाराज श्री भीमसेन के गिंजावाले शिलालेख का पता जनरल कनिंघम ने लगाया था और उसके संबंध में उन्होंने यह भी लिखा था कि इस शिलालेख की गिंजावाला शिलालेख लिपि प्रारंभिक गुप्त ढंग की है, पर इसका आरंभ उसी प्रसिद्ध शैली से हुआ है जो इंडो-सीदियन या भारतीय-शक शिलालेखों में पाई जाती है। जनरल कनिंघम ने इस शिलालेख को गुप्तों से पहले का बतलाया था। इसमें संदेह नहीं कि इसकी शैली भी वही है जो मथुरा में मिले हुए कुशन शिलालेखों की है। उसमें लिखा है- महाराजस्य श्री भीमसेनस्य संवत्सरे १. A. S. R. खंड २१, पृ० ११६, प्लेट ३० और एपिग्राफिया इंडिका, खंड ३, पृ. ३०२, और पृ. ३०८ के सामनेवाला प्लेट ।
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