पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/२३२

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(२०२ ) में अथवा उसके आस-पास प्रचार नहीं था और सन् ४५६ या ४५७ ई० में पश्चिमी भारत में उसका प्रचार था और त्रैकूटक राजा दह्रसेन ने उसका प्रयोग किया था। पर साथ ही डा० फ्लीट ने यह बात भी मान ली थी कि इस संवत् का आरंभ त्रैकूटकों से नहीं हो सकता। इस संबंध में उन्होंने लिखा था- "पर इस बात का कोई प्रमाण नहीं हैं कि यह संवत् त्रैकूट संवत् था; और इस बात का तो और भी कोई प्रमाण नहीं है कि यह संवत् स्थापित किया गया था।" प्रो० रैप्सन का भी यही मत है। किसी किसी ने बारहवीं शताब्दी में कलचुरियों के साथ भी इस संवत् का संबंध स्थापित किया है, पर इस मत को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया जाता; और इसका एक सीधा-सादा कारण यही है कि इतिहास में कहीं इस बात की कोई गुंजाइश ही नहीं है कि कलचुरियों ने सन् २४८ ई० में चेदि देश में अथवा और कहीं कोई संवत् चलाया होगा । फ्लीट ने संकोचपूर्वक कहा था कि इस संवत् का प्रचार करनेवाला आभीर राजा ईश्वरसेन हो सकता है जिसने सातवाहन शक्ति पर प्रबल आघात किया था। फ्लीट ने यह भी बतलाया था कि इस संवत् का किसी न किसी प्रकार सातवाहनों के पतन के साथ संबंध है जो सन् २४८ ई० में हुआ था। इस पर प्रो० रैप्सन ने कहा था- "परंतु नवीन संवत् का प्रचार किसी नवीन शक्ति की सफल स्थापना का सूचक समझा जाना चाहिए, न कि आंध्रों के प्राथमिक प्रारंभ अथवा पतन का सूचक होना चाहिए।" १. Coins of Andhra Dynasty. पृ० १६२ ।