पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/२३३

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. ( २०३ ) और प्रो० रैप्सन ने इस बात परभी जोर दिया था कि आभीरों और त्रैकूटों का संबंध स्थापित करना और उन्हें एक ही राजवंश का सिद्ध करना असंभव है, बल्कि यह भी नहीं कहा जा सकता कि वे लोग एक ही जाति के थे, क्योंकि इस बात का कहीं कोई प्रमाण ही नहीं मिलता। इसके सिवा आभीर लोग जो पश्चिमी शकों के विरुद्ध उठे थे, उनका समय सन् २४८ ई० से बहुत पहले अर्थात, सन् १८८-१६० के लगभग था' । १०६. त्रैकूटक लोग वाकाटकों के करद और अधीनस्थ थे और उन्होंने भी उसी संवत् का प्रयोग किया था, जिस संवत का प्रयोग प्रवरसेन प्रथम ने किया था; और इससे यही सूचित होता है कि वे वाकाटकों के अधीनस्थ थे। त्रैकूटक राजा अपने नाम के साथ महाराज की पदवी लगाते थे जो करद और अधीनस्थ राजाओं की उपाधि थी। वाकाटक साम्राज्य के पश्चिमी भाग में इस संवत् का जो प्रचार मिलता है, उससे यही सूचित होता है कि इसका प्रचार वाकाटकों के करद और अधीनस्थ राजाओं में था। प्रभावती गुप्ता के समय से लेकर प्रवरसेन द्वितीय के समय तक के अलग अलग राजाओं ने अपने शासन- काल के वर्षों का जो प्रयोग किया है, वह एक ऐसे समय में किया था, जब कि वाकाटकों के राज-दरबार में गुप्तों का प्रभाव अपनी चरम सीमा तक पहुँचा हुआ था। ६ १०७. डा० फ्लीट को इस संबंध में केवल यही आपत्ति थी कि त्रिकूट का, जहाँ ईसवी पाँचवीं शताब्दी में इस संवत् का १. विंसेंट स्मिथ कृत Early History of India. पृ० २२६. पाद-टिप्पणी, जिसमें डा० डी० श्रार० भांडारकर का मत उद्धृत है ।