( २०४ ) प्रचार पाया जाता है, चेदि (बुंदेलखंड और बघेलखंड ) के साथ, जिससे सन् २४८ ई. वाला संव संबद्धत है, कोई संबंध देखने में नहीं आता। पर वाकाटकों के जिस इतिहास का पता चला है, उसे देखते हुए यह आपत्ति भी दूर हो जाती है। हम देखते हैं कि प्रवरसेन प्रथम के समय में चेदि देश में यह संवत प्रचलित था । पहले फ्लीट का मत था कि शर्वनाथ के वर्ष सन् २४८ ई० वाले संवत के हैं; और यही मत ठीक जान पड़ता है। इस बात में जरा भी संदेह नहीं है कि महाराज हस्तिन गुप्तों का अधीनस्थ था और इसीलिये इस बात की आवश्यकता हुई थी कि वाकाटक साम्राज्य के अंतर्गत महाराज शर्वनाथ के राज्य और गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत हस्तिन् के राज्य के बीच में सीमा निश्चित करनेवाला स्तंभ स्थापित किया जाय। शर्वनाथ और हस्तिन दोनों ही अधीनस्थ तथा करद राजा थे और हस्तिन् निश्चित रूप से गुप्तों का अधीनस्थ और करद था। इसलिये शर्वनाथ वाकाटकों का ही करद और अधीनस्थ हो सकता था, जिसकी राजधानी अथवा नचना नगर उच्चकल्प या मचहरा (नौगढ़ रियासत ) से कुछ ही मीलो की दूरी पर था । $ १०८. दो वातें ऐसी हैं जिनसे सिद्ध होता है कि सन् २४८ ई० वाला संवत् वाकाटक संवत् था। पुराणों में सातवाहनों के पतन के वर्णन के उपरांत कहा गया है कि सातवाहनों के उपरांत उनके साम्राज्य पर अधिकार करनेवाला विंध्यशक्ति था। अतः जब एक नई शक्ति का उत्थान होगा, तब तुरंत ही अथवा उसके कुछ बाद अवश्य ही एक नए संवत का प्रचार होगा; और गुप्त संवत समुद्रगुप्त के शासस-काल के अंतिम दिनों में अथवा चंद्रगुप्त द्वितीय के शासन-काल में प्रचलित हुआ था। समुद्रगुप्त
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