( २११) चंद्र का उदय हुआ था, उस समय पाटलिपुत्र में मगध का राजा सुंदर वर्मन राज्य करता था। इसके प्रासाद का नाम सु-गांग था और उसी प्रासाद में रहकर यह शासन करता था। खारवेल- वाले शिलालेख में इस प्रासाद का नाम "सु-गांगीय" दिया है और मुद्रा-राक्षस में इसे सु-गांग प्रासाद कहा गया है । इस प्रकार राजनगर पाटलिपुत्र अपने प्राचीन प्रासाद समेत सुंदर वर्मा और चंद्र के समय तक ज्यों का त्यों मौजूद था। राजा सुंदर वर्मन् की अवस्था अधिक हो गई थी और वह वृद्ध था; और उसका दो ही तीन वर्षों का एक बच्चा था जो अभी तक दाई की गोद में रहता था। जान पड़ता है कि इस शिशु राजकुमार के जन्म से पहले ही मगध के राजा ने चंद्र अथवा चंद्रसेन को दत्तक रूप में ले रखा था। चंद्र यद्यपि राजा का कृतक पुत्र था, परंतु फिर भी अवस्था में बड़ा होने के कारण अपने आपको राज्य का उत्तरा- धिकारी समझता था। उसने उन्हीं लिच्छवियों के साथ विवाह- संबंध स्थापित किया था जो उसी कौमुदी-महोत्सव नाटक में मगध के शत्रु कहे गए हैं। लिच्छवियों ने चंद्र को साथ लेकर एक बहुत बड़ी सेना की सहायता से पाटलिपुत्र पर घेरा डाला था। उसी युद्ध में वृद्ध राजा सुंदर वर्मन् मारा गया था। सुंदर वर्मन के कुछ स्वामिनिष्ठ मंत्री शिशु राजकुमार कल्याण वर्मन् को किसी प्रकार वहाँ से उठाकर किष्किंधा की पहाड़ियों में ले गए थे। चंद्र Gupta Inscriptions को प्रस्तावना, पृ० १८६ और उसके आगे)। दह्रसेन ने अपने सिक्कों पर अपना नाम 'दह्र-गण' दिया है। C. A. D. पृ० १६४)। १. यह नाटक आंध्र रिसर्च सोसाइटी के जरनल, खंड १ और ३ में प्रकाशित हुआ है।
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