पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/२५०

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(२२२) करनेवाला था। समुद्रगुप्त ने उस परंपरा को पूर्ण रूप से ग्रहण कर लिया था। समुद्रगुप्त और उसके उत्तराधिकारियों के राज- नीतिक विधान का हिंदू विद्या एक अंग बन गई थी। उनके राष्ट्रीय कार्य तथा राजनीतिक स्वरूप विष्णु की राजस (अर्थात् राजाओं के उपयुक्त ) भक्ति के साँचे में ढल गया था। वे भारतवर्ष के राज्य का विष्णु की ही भाँति दृढ़तापूर्वक और पोषण करने के लिये उठ खड़े हुए थे। उनकी भक्ति बहुत प्रबल और गंभीर है। वे विष्णु का ही ध्यान करते हैं और विष्णु में ही ध्यान करते हैं। समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त द्वितीय दोनों अपने देवता के साथ मिलकर एक-रूप हो गए हैं। एरन में समुद्रगुप्त द्वारा स्थापित जो विष्णु की मूर्ति है, उसे जिस किसी ने देखा होगा, उसे स्वयं समुद्रगुप्त का भी स्मरण हो आया होगा और उसने उस मूर्ति में स्वयं समुद्रगुप्त की आकृति और परिच्छेद देखे होंगे और उदयगिरि में चंद्रगुप्त-गुहा में जो व्यक्ति विष्णुवगह की मूर्ति देखेगा, उसे यह स्मरण हो आवेगा कि चंद्रगुप्त द्वितीय स्वयं ही ध्रुवदेवी का उद्धार कर रहा है। अपने समय की जो आध्यात्मिक और धार्मिक प्रवृत्तियाँ राजकीय और राष्ट्रीय भावों आदि को फिर से जन्म देती हैं, बिना उन्हें अच्छी तरह समझे कोई किसी राजनीतिक सुधार या रूपांतर का स्वरूप ठीक तरह से नहीं जान सकता और इसीलिये इस अवसर पर गुप्तों की इस प्रकार की सब बातों का ठीक ठीक स्वरूप यहाँ जान लेना आवश्यक है। ६ ११८. भीतरी में भी और मेहरौली में भी गुप्तों ने अपनी जो विजएँ विष्णु को अर्पण की थी, जिस ठाठ-बाट से उन्होंने अश्व- १. मिलाश्रो वि० उ० रि० सो० का जनरल, खंड १८, पृ० ३५ ।