पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/२५१

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( २२३ ) मेध यज्ञ किए थे, जिस प्रकार उदारतापूर्वक उन यज्ञों में उन्होंने दान दिए थे और जिस ठाठ से अपने गरुडमदंक सिक्के प्रचलित किए थे, उन सबका ठीक ठीक अभिप्राय बिना उक्त मूल मंत्र को जाने कभी समझ में नहीं आ सकता। हम इन्हें हिंदू-मुगल कह सकते हैं, परंतु इनमें न तो मुगलोंवाली करता ही थी और न चरित्र-भ्रष्टता ही और बिना इस कुंजी के इनके रहस्य का उद्घा- टन नहीं हो सकता। बिना इसके आपको इस बात का पता नहीं चल सकता कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने किस प्रकार प्राण-दंड की प्रथा उठा दी थी', किस प्रकार उसने हिंदुत्व के वैभव की कीर्ति को चरम सीमा पर पहुंचा दिया था और किस प्रकार उसने उत्तम शासन की ऐसी सीमाएँ निर्धारित की थीं जिनका और अधिक विस्तार कोई राज-दंड नहीं कर सका था। ६११६. भार-शिवों से लेकर वाकाटकों के समय तक उसी शिव का राज्य था जो सामाजिक त्याग और सन्यास का देवता था, जो सर्वशक्तिमान ईश्वर का संहारक प्राचीन और नवीन घम रूप था और जो परम उदार तथा दानी होने पर भी अपने पास किसी प्रकार की संपत्ति नहीं रखता था, जिसके पास कोई भौतिक वैभव नहीं था, और जो परम उग्र तथा घोर था। परंतु इसके विपरीत दूसरे गुप्त राजा तथा पहले गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त ने ईश्वर के उस रूप का आवाहन किया था जिसका कार्य राजकीय और राजस है, जो अपने शरीर पर भभूत नहीं रमाता, बल्कि स्वर्ण के अलंकार धारण करता है, जो रचना और शासन करता १. फा-हियान, सोलहवाँ प्रकरण ।