पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/२५५

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(२२७ ) पड़ता है। और वह सामग्री, जैसा कि हम अभी बतलावेंगे, बहुत अधिक मूल्यवान है। ६ १२१. मत्स्यपुराण में आंधों के पतन-काल तक का इतिहास है; और गणना करके यह निश्चित किया गया है कि आंध्रों का पतन या तो सन् २६८ ई० में और या उसके लगभग हुआ था। ( बिहार और उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी का जरनल, खंड १६, पृ० २८०)। और इसके आगे के सूत्र वायुपुराण तथा ब्रह्मांड पुराण में चलते हैं। इन दोनों पुराणों में फिर से साम्राज्य का इतिहास प्रारंभ किया गया है और वह इतिहास विंध्यशक्ति से प्रारंभ हुआ है। विंध्यशक्ति के वंश और विशेषतः उसके पुत्र प्रवीर के उदय का विवेचन करते हुए उन पुराणों में आनुषंगिक रूप से विंध्यशक्ति के अधीन विदिशा-नागों और उनके उत्तरा- धिकारी नव-नागों अर्थात् भार-शिवों का इतिहास दिया है। इसके उपरांत उनमें वाकाटक (बिंध्यक) साम्राज्य और उसके संयोजक अंगों का पूरा वर्णन दिया है और साथ ही उस १. उनके तुखार-मुरुंड आदि सम-कालीनों का अंत सन् २४३ या २४७ ई० के लगभग हुश्रा था । वि० उ० रि० सो० का जरनल, खंड १६, पृ० २८६ । २. इसका एक और रूप नव-नाक भी मिलता है। ऊपर पृ० २४३ में कालिदास का जो श्लोक उद्धृत किया गया है, क्या उसमें श्राए हुए “श्रा-नाक" शब्द का दोहरा श्रर्थ हो सकता है ? यदि "श्रा-समुद्र" में समुद्र का अभिप्राय गुप्तों से हो सकता है तो फिर "श्रा-नाफ" के "नाक" का अभिप्राय भी नाकों अर्थात् नागों से हो सकता है।