( २४१ ) दक्षिणी भारत में कांची के पल्लव ही सबसे अधिक शक्तिशाली थे, जिन्हें समुद्रगुप्त ने पराजित किया था। इन पल्लवों के पराजित होने पर कदाचित् मयूरशर्मन ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। जान पड़ता है कि उसके पुत्र कंगवर्मन् ने. समुद्रगुप्त को उत्तरी भारत का भी और दक्षिणी भारत का भी सम्राट मानने से इन्कार कर दिया था और उसका विरोध किया था। कंगवर्मन् का समय सन् ३५० ई. के लगभग है। । ताल- १. कदंब-कुल नामक ग्रंथ, पृ० १३-१८ में यह मानकर तिथियाँ दी गई हैं कि समुद्रगुप्त ने दक्षिण पर जो विजय प्राप्त की थीं, उन्हीं के फल-स्वरूप मयूरशमन् ने अपना राज्य प्रारंभ किया था । परंतु यह बात ठीक नहीं है । तालगुंडवाले अभिलेख में कहा गया है कि मयूर पहले एक राजनीतिक लुटेरा था और उसे पल्लव-सम्राट से एक जागीर मिली थी जिसके यहाँ वह सेनापति के रूप में काम करता था । पल्लव-सम्राट ने उसे अपना सेनापति अभिषिक्त किया था (पट्ट बंध- सपूजाम्, एपि० ई०८, ३२. राजनीति-मयूखमें कहा गया है कि सेनापतियों का पट्टबंध होता था अर्थात् उनके सिर पर पगड़ी बाँधने की रसम होती थी)। उसके प्र-पौत्र ने तालगुंडवाला जो अभिलेख उत्कीर्ण कराया था, उसमें इस बात का कोई उल्लेख नहीं है कि मयूर ने कोई अश्वमेध यज्ञ किया था। कदाचित् उसने अपने जीवन के अंतिम काल में ही राजा के रूप में शासन करना प्रारंभ किया था। मिलाश्रो A. R. S. M. १६२९, पृ० ५० सबसे पहले उसके पुत्र कंग ने ही वर्मन् वाली राजकीय उपाधि ग्रहण की थी । मयूरशर्मन् का समय सन् ३२५-३४५ ई० के लगभग और उसके पुत्र कंग का समय सन् ३४५-३६० के लगभग समझा जाना चाहिये । इसकी पुष्टि उस तिथि से भी होती है जो काकुस्थवर्मन् के उस ताम्रलेख में
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