(२४२) गुंडवाले शिलालेख (एपि० इ०८, ३५) में कहा गया है कि- "उसने भीषण युद्धों में बड़े बड़े विकट कार्य कर दिखलाए है जो उसने अपने युवराज होने की अवस्था में उत्कीर्ण कराया था। उस पर ८० वाँ वर्ष अंकित है। कदंबों ने कभी कोई अपना नया संवत् नहीं चलाया था। न तो उसी से पता चलता है कि यह ८० वाँ वर्ष किस संवत् का था और न उसके पहले या उसके बाद ही उस संवत् का कोई उल्लेख मिलता है । पृथिवीपेण ने कुंतल के राजा अर्थात् कदंब राजा पर विजय प्राप्त की थी और यह कदंब राजा कंग के सिवा और कोई नहीं हो सकता । स्वयं पृथिवीषेण भी उस समय समुद्रगुप्त के अधीन था और काकुस्थ ने अपनी एक कन्या का विवाह गुप्तों के साथ कर दिया था। अतः युवराज काकुस्थ ने जिस संवत् का व्यवहार किया था, वह अवश्य ही गुप्त संवत् होना चाहिए। सन् ४०० ई० ( गुप्त संवत् ८०) में काकुस्थ अपने बड़े भाई रघु का युवराज था । इस प्रकार उसके वृद्ध प्रपिता का समय सन् ३२०- ३४० या ३२५-३४५ ई० रहा होगा । और जिस कंग ने सिंहासन का परित्याग किया था, उसका समय सन् ३४०-३५५ या ३४५ - ३६० ई० होगा। और काकुस्थ का समय सन् ४१०-४३० ई० के लगभग होगा । कदंब-कुल में मि. मोराएस (Mr Moraes) ने जो तिथियाँ दी हैं, वे लगभग २० वर्ष और पहले होनी चाहिएँ । अभी हाल में चंद्रवल्ली (चीतलद्रु ग) की झील के पास मिला हुश्रा मयूरशर्मन् का शिलालेख देखना चाहिये, जिस पर उसके संबंध में केवल कदंबानाम् ( बिना किसी उपाधि के) लिखा है । Archa- elogical Survey Report, Mysore १६२६, पृ० ५० और उस शिलालेख का शुद्ध किया हुश्रा पाठ देखो श्रागे परिशिष्ट "ख" में । उस शिलालेख में कोई मोकरि, पारियात्रिक या शक नहीं है ।
पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/२७०
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