( २५१ ) मिलते हैं, वे यों ही और बिना किसी उद्देश्य के सिर्फ मनमाने तौर पर गिना दिए गए थे। उसका लेखक दक्षिणी भारत की विजय हरिषेण था जो समुद्रगुप्त के सेनापतियों में से एक था, जिसका सम्राट के साथ बहुत ही घनिष्ठ संबंध था और जो शांति तथा युद्ध-विभाग का मंत्री था। उसके संबंध में यही आशा की जाती है कि नसने अपने स्वामी की विजयों का बिलकुल ठीक ठीक और पूरा लेखा ही रखा होगा। वह एक ऐसा इतिहास प्रस्तुत कर रहा था जो अशोक-स्तंभ पर सदा के लिये प्रकाशित किया जाने को था । उसने सारे भारत की विजयों आदि को दक्षिणी, उत्तरी, पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी इन चार भागों में विभक्त किया था और वह एक भौगोलिक योजना का बिलकुल ठीक अनुसरण कर रहा था। उसमें जो अनेक नाम आए हैं वे मनमाने तौर पर और बिना किसी कारण के नहीं रखे जा सकते थे। इसके सिवा हम यह भी समझ सकते हैं कि उसने जो लेख प्रस्तुत किया था, वह अवश्य ही सम्राट को दिखलाकर उससे स्वीकृत भी करा लिया गया होगा क्योंकि जिस समय वह लेख प्रकाशित हुआ था, उस समय सम्राट् जीवित था। कांची, अवमुक्त, वेंगी और पलक्क एक विभाग में हैं। "पलक्कड़" के रूप में पलक्क का उल्लेख पल्लव अभिलेखों में कई स्थानों में मिलता है। जिनका १. देखो ऊपर पृ० १६५ की पाद-टिप्पणी १, साथ ही देखो रा० ए० सो० के जरनल, सन् १८६८, पृ० ३८६ में बुहलर की सम्मति जिससे मैं पूरी तरह से सहमत हूँ। २. ई. ए., खंड ५, पृ०, ५१-५२, १५५, साथ ही देखो एपि. इं० खंड ८, पृ० १५६, (कड का अर्थ होता है-स्थान । -पृ०१६१)
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