पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/२९२

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( २६४) मोहर पर एक नाग या सर्प का लांछन अथवा चिह्न अंकित है और फ्लीट ने अपने Gupta Inscriptions में इनका संपादन किया है। इस पर की लिपि से पता चलता है कि यह मोहर ईसवी चौथी शताब्दी की है ( Gupta Inscriptions, पृ० २८३)। मतिल बुलंदशहर जिले में शासन करता था जहाँ एक दूसरे नाग लांछन से युक्त उसकी मोहर मिली है। हम यह नहीं जानते कि समुद्रगुप्त के शिलालेख में जिस चंद्रवर्मन का उल्लेख है, वह कौन है; परंतु हम इतना अवश्य जानते हैं कि सन् २५० ई. के लगभग जालंधर दोआब के सिंहपुर नामक स्थान में सामंतों का एक यादव-वंश अवश्य स्थापित हुआ था ( देखो $ ७८ और ८०)। यह वंश अवश्य ही वाकाटकों का सामंत रहा होगा। उनके नामों के ऊनमें “वर्मन" शब्द रहता था । यद्यपि सिंहपुर के शासकों की सूची में हमें "चंद्रवर्मन्” नाम नहीं मिलता, परंतु फिर भी यह संभव है कि वह कोई नवयुवक वीर रहा होगा १. इंडियन एंटीक्वेरी, खंड १८, पृ० २८६ । यह नाग शंखपाल का चिह्न है । इसमें एक शंख और एक सर्प है। सर्प की प्राकृति गोल है और उसके शरीर से श्राभा निकल रही है। दुर्गादेवी के एक ध्यान में शंखपाल दा इस प्रकार वर्णन मिलता है-दाहोत्तीण मु- वर्णाभा । यह शंखपाल देवी के हाथों में कंकड़ के रूप में रहता है । २. विंसेंट स्मिथ ने एक बार कहा था कि समुद्रगुप्त के शिलालेख वाला चंद्रवर्मन् सुसनियावाले शिलालेख ( रा० ए० सो० का जरनल, १८८७, पृ०८६६) वाला चंद्रवर्मन् ही है। परंतु सुसनियावाले शिलालेख की लिपि ( एपि० इ०, खंड १३, पृ० १३३ ) बहुत परवर्ती काल की है।