(२६६ ) भी अपने चंपावाले प्रांत में मिला लिया था, क्योंकि इससे उसके साम्राज्य की प्राकृतिक सीमा समुद्र तक जा पहुँचती थी; और उड़ीसा तथा कलिंग का शासन करने के लिये और द्वीपस्थ भारत के साथ समुद्री व्यापार की व्यवस्था करने के लिये ( देखो ६ १५० ) यह आवश्यक था कि समुद्र तक सहज में पहुँच हो सके। ६१४३. हमें यहाँ इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि समुद्रगुप्त का साम्राज्य काँगड़े तक ही था और उसमें काश्मीर तथा उसके नीचे का समतल मैदान सम्मि- काश्मीर तथा दैवपुत्र लित नहीं था। यह बात भागवत से स्पष्ट वर्ज योर उनकी हो जाती है, जिसका मूल पाठ उस समय अधीनता से पहले ही पूरा तैयार हो चुका था, जब स्वीकृत करना कि देवपुत्र वर्ग ने अधीनता स्वीकृत की थी। भागवत में इस वर्ग के संबंध में कहा गया है कि यह दमन किए जाने के योग्य है। इलाहाबादवाले शिलालेख की २३ वी पंक्ति में कहा गया है कि समुद्रगुप्त की प्रशांत कीर्ति सारे देश में फैल गई थी, और यह भी कहा गया है कि उसने ऐसे अनेक राजवंशों को फिर से राज्य प्रदान किया था, जिनका पतन हो चुका या और जो राज्याधिकार से वंचित हो चुके थे। और इस शांतिवाली नीति का तुरंत हो यह परिणाम भी बतलाया गया है कि दैवपुत्र शाही-शाहानुशाही शक-मुरुंडों ने भी अधीनता स्वीकृत कर ली थी, और इस प्रकार उत्तर-पश्चिमी प्रदेश और काश्मीर भी साम्राज्य के अंतर्गत आ गया था। यह वहीं राज्य था जिसे भागवत और विष्णुपुराण में म्लेच्छ-राज्य कहा गया है । शाहानुशाही ने स्वयं समुद्रगुप्त की सेवा में उपस्थित होकर अधीनता स्वीकृत की थी, क्योंकि इलाहाबादवाले शिला-
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