पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/३१०

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(२८२ ) ऊँगा' । भागवत और विष्णुपुराण में जो वर्णन मिलते हैं, उनके अनुसार म्लेच्छ राजा अपनी ही जाति की रीति-नीति बरतते थे और प्रजा से गैरकानूनी कर वसूल करते थे। यथा-"प्रजास्ते भक्षयिष्यन्ति म्लेच्छा राजन्य-रूपिणः।" वे लोग गौओं की हत्या करते थे ( उन दिनों गौएँ पवित्र मानी जाने लगी थीं, जैसा कि वाकाटक और गुप्त-शिलालेखों से प्रमाणित होता है ), ब्राह्मणों की हत्या करते थे और दूसरों की स्त्रियाँ तथा धन संपत्ति हरण कर लेते थे ( स्त्री-बाल-गोद्विजघ्नाश्च पर-दारा धनाहृताः)। उनका कभी अभिषेक नहीं होता था (अर्थात् हिंदू-धर्म-शास्त्र के अनुसार वे कानून की दृष्टि से कभी राजा ही नहीं होते थे)। उनके राजवंशों के लोग निरंतर एक दूसरे की हत्या करके विद्रोह करते रहते थे ('हत्वा चैव परस्परम्' और 'उदितोदितवंशास्तु उदितास्तमितस्तथा' ) और उनके संबंध की ये सब बातें ऐसी हैं जिनका पता उनके सिक्कों से मुद्राशास्त्र के आचार्यों को पहले ही लग चुका है । इस प्रकार सारे राष्ट्र में एक पुकार सी मच गई थी और वही पुकार पुराणों में व्यक्त की गई है। इस प्रकार मानों उस समय के गुप्त सम्राटों और हिंदुओं से कहा गया था कि उत्तर-पश्चिमी कोण का यह भीषण नाशक रोग किसी प्रकार समूल नष्ट करो। और इस रोग को दूर करने के ही काम में चंद्र- गुप्त द्वितीय को विवश होकर लगना पड़ा था और यह काम उसने बहुत ही सफलतापूर्वक पूरा किया था । १. एपिग्राफिया इंडिका, पृ० ३३-४३ ( जूनागढ़वाला शिलालेख पंक्ति ६-१०) सर्व-वर्णैरभिगम्य रक्षणार्थ (म् ) पतित्वे वृतेन प्राप्र. णोच्छ्वासात् पुरुषवध-निवृचि-कृत सत्य-प्रतिज्ञेन अन्त्यत्र संग्रामेषु । तक पंक्ति १२-यथावत्-प्राप्तैलि शुल्क-भागैः ।