(२८६) वे उन सब उपनिवेशों को भारतवर्ष के अंग ही मानते थे। उन दिनों लोग भारतवर्ष का यही अर्थ मानते थे कि इसमें भारत के साथ-साथ वे द्वीप भी सम्मिलित हैं जिनमें भारतवासी जाकर बस गए हैं और इन्हीं में आज-कल का सीलोन या लंका भी सम्मिलित था। भारत के अतिरिक्त इन सबके आठ विभाग थे और इन्हीं नौ देशों को मिलाकर नवद्वीप कहते हैं। ६ १५०. इलाहाबादवाले शिलालेख की २३ वीं पंक्ति में शाहा- नुशाही तथा दूसरे राजाओं का जो वर्ग है और जिसे हम आज-कल के शब्दों में "प्रभाव-क्षेत्र के समुद्रगुप्त और द्वीपस्थ राज्यों का वर्ग" कह सकते हैं, उसके संबंध में लिखा है- "सैंहलक आदिभिस्व सर्वद्वीप-वासिभिः। (अर्थात् सिहल का राजा और समस्त द्वीप-वासियों का राजा) और इन सब राजाओं के विषय में लिखा है कि उन्होंने अधीनता स्वीकृत कर ली थी और समुद्रगुप्त को अपना सम्राट मान लिया था। उन राजाओं ने कोई कर तो नहीं दिया था, परंतु वे अपने साथ बहुत कुछ भेंट या उपहार लाए थे और उन्होंने स्पष्ट रूप से उसका प्रभुत्व स्वीकृत कर लिया था। समुद्रगुप्त ने इसका वर्णन इस प्रकार किया है कि मैंने अपनी दोनों भुजाओं में सारी पृथ्वी को इकट्ठा करके ले लिया है। इसलिये हम कह सकते हैं कि जिसे उसने भारतवर्ष या पृथ्वी कहा है, उसमें द्वीपस्थ भारत भी सम्मिलित भारत १. वायुपुराण को देखने से जान पड़ता है कि उसके कर्ता को द्वीपपुंज का विस्तृत ज्ञान था; और ४८ वें अध्याय में उनके वे नाम दिए गए हैं जो गुप्त-काल में प्रचलित थे। यथा-अंग, (चंपा), मलय य (व) श्रादि । १६
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