पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/३२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( २६५) हिंदू आदर्श की सिद्धि की थी'। महाभारत के अनुसार सिंहल ( लंका ) और हिंदू द्वीप अथवा उपनिवेश हिंदू श्रादर्श हिंदू सम्राट् के भारतीय साम्राज्य के अंतर्मुक्त अंग थे। उस आदर्श के अनुसार अफगानिस्तान समेत सारा भारत उस साम्राज्य के अंतर्गत होना चाहिए। परन्तु साम्राज्य का विस्तार अफगानिस्तान से और अधिक पश्चिम की ओर नहीं होना चाहिए और न उसके अफगानिस्तान के उस पार के देशों की स्वतंत्रता का हरण होना चाहिए। हिंदू भारत में परंपरा से सार्वराष्ट्रीय विषयों से संबंध रखनेवाली जो शुभ नीति चली आई थी, उसकी प्रशंसा यूनानी लेखकों ने भी और अरब के सुलेमान सौदागर ने भी की है। मनुस्मृति में पश्चिमी भारत की जो सीमा निर्धारित की गई है, उसी सीमा तक समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य का विस्तार किया था और उससे आगे वह कभी नहीं बढ़ा था। उस समय के सासानी राजा को रोमन सम्राट बहुत तंग कर रहा था और १. महाभारत, सभापर्व, १४, ६-१२ और ७३, २० । २. उक्त ग्रंथ और पर्व; ३१, ७३-७४, ( साथ ही देखो दक्षिणी पाठ ३४)। ३. महाभारत, सभापर्व, २७, २५, जिसमें उस सीस्तान की सीमाएँ भी निर्धारित हैं जिसमें परम काम्बोज जाति के लोग और उन्हीं से मिलते-जुलते उत्तरी ऋषिक (श्राशों लोग) श्रादि फिरके बसते थे। ऋषिक और पार्शी के संबंध में देखों जयचंद्र विद्यालंकार- कृत "भारतभूमि' नामक ग्रंथ के पृष्ठ ३१३-३१५ और बिहार तथा उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी का जनरल, खंड १८, पृ०६७ । ४. Hindu Polity, दूसरा भाग, पृ० १९०-१९१.