( १० ) परंपरा चलाई थी, वाकाटकों ने उसकी रक्षा की थी और पीछे गुप्तों ने भी उसी को ग्रहण किया था; और चंद्रगुप्त विक्रमादित्य से लेकर बालादित्य तक सभी परवर्ती सम्राटों ने पूर्ण रूप से उसकी रक्षा की थी। यदि भार-शिव न होते तो न तो गुप्त- साम्राज्य ही अस्तित्व में आता और न गुप्र विक्रमादित्य आदि ही होते। ६८. वाकाटक इतिहास-लेखकों ने इन भार-शिवों का इतिहास बहुत सुंदर रूप से सदा के लिये स्थायी कर दिया है। आज तक कभी इतने संक्षेप में और भार शिवों का परम इतना अधिक सार गर्भित इतिहास संक्षिप्त इतिहास नहीं लिखा गया था। वह इतिहास एक ताम्रलेख की निम्नलिखित तीन पंक्तियों में है- "अंशभार सन्निवेशितशिवलिंगोद्वाहनशिवसुपरितुष्टसमुत्पादित- राजवंशानाम् पराक्रम आधिगत=भागीरथी अमलजलः मूर्द्धा भिषिक्तानाम् दशाश्वमेध-अवभृथस्नानाम् भारशिवानाम् ।" अर्थात्--"उन भार-शिवों (के वंश) फा, जिनके राजवंश का श्रारंभ इस प्रकार हुअा था कि उन्होंने शिव-लिंग को अपने कंधे पर वहन करक शिव को भली भाँति परितुष्ट किया था-वे भार-शिव जिनका राज्याभिषेक उस भागीरथी के पवित्र जल से हुया था जिसे उन्होंने अपने पराक्रम से प्राप्त किया था वे भार-शिव जिन्होंने दस अश्वमेध यज्ञ करके अवभृथ स्नान किया था ।" १ फ्लीट कृत Gupta Inscriptions पृ० २४५ और २३६.
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