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पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/३५३

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( ३२५) राज था। शिलालेखों में उसकी उपाधि साधारणतः छोड़ दी गई है और उसके संबंध में केवल इसी प्रकार उल्लेख किया गया है- "इक्ष्वाकुओं का सिरि चाटमूल ।” और जहाँ उसकी उपाधि भी दी गई है [जैसे उसकी लड़की ने एक स्थान पर उसकी उपाधि दी है; देखो एपिग्राफिया इंडिका, खंड २०, पृ० १८ (बी २)]। वहाँ उसे सदा “महाराज" ही कहा गया है। परंतु वीरपुरिसदत्त को सदा ( केवल दो स्थानों को छोड़कर ) राजन् ही कहा गया है। वीरपुरिसदत्त का पुत्र चाटमूल द्वितीय सदा “महाराज" ही कहा गया है ( एपिग्राफिया इंडिका, खंड २०, पृ० २४)। इससे सूचित होता है कि चाटमूल प्रथम ने राजकीय पद ग्रहण किया था और उसके बाद केवल एक पीढ़ी तक उसके वंश में वह पद चला था और चाटमूल द्वितीय के समय में उसके वंश से वह पद निकल गया था। रुद्रधर भट्टारिका उज्जयिनी के महाराज की कन्या थी; और इससे यह प्रमाणित होता है कि इक्ष्वाकुओं के समय में अवंती में कोई क्षत्रप नहीं बल्कि एक हिंदू शासक राज्य करता था और इस बात की पुष्टि पौराणिक इतिहास से भी तथा दूसरे साधनों से भी होती है। रुद्रधर भट्टारिका का पिता अवश्य ही भार-शिव साम्राज्य का एक सदस्य रहा होगा (वह भार-शिव साम्राज्य का कोई अधीनस्थ राजा होगा)। ६१६६. राजा सिरि चाटमूल (प्रथम) ने अग्निहोत्र, अग्नि- टोम, वाजपेय और अश्वमेध यज्ञ किया था और वह देवताओं के सेनापति महासेन का उपासक था। इन लोगों में अपनी मौसेरी और ममेरी बहनों से विवाह करने की इक्ष्वाकुओं वाली प्रथा प्रचलित थी। बौद्ध धर्म के प्रति उन लोगों ने जो सहनशीलता दिखलाई थी, वह अवश्य ही बहुत मार्के की थी। राजपरिवार की प्रायः सभी स्त्रियाँ बौद्ध थीं; और यद्यपि राजाओं तथा राजपरिवार