पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/३५४

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(३२६) के दूसरे पुरुषों ने उन स्त्रियों को दान करने के लिये धन दिया था, परंतु फिर भी किसी राजा अथवा राजपरिवार के दुसरे पुरुष ने स्वयं अपने नाम से एक भी दान नहीं किया था। इक्ष्वाकुओं ने अपने पुराने स्वामी सातवाहनों की ही धार्मिक नीति का अनुकरण किया था। उनका शासन बहुत ही शांतिपूर्ण था। वीर पुरुषदत्त के समय के शिलालेखों में से एक शिलालेख में यह कहा गया है कि नागार्जुन की पहाड़ी पर वंग, वनवास, चीन, चिलात, काश्मीर और गांधार तक के यात्री तथा सिंहली भिक्षु आदि आया करते थे। ६१७०. चांतिसिरि के परिवार के शिलालेखों की लिपि से सिद्ध होता है कि वह ईसवी तीसरी शताब्दी में हुई थी। बुह्नर ने वीर पुरिसदत्त का, जो चांतिसिरि का दक्षिण और उत्तर का भतीजा और दामाद था, समय ईसवी पारस्परिक प्रभाव तीसरी शताब्दी निश्चित किया है। जान पड़ता है कि राजा चाटमूल (प्रथम) ने सन् २२० ई० के लगभग अर्थात् आंध्र के साम्राज्य भोगी सात- वाहन राजवंश के चंडसाति का अंत होने के थोड़े ही दिन बाद अश्वमेध यज्ञ किया था। इसके कुछ ही दशकों के बाद पल्लव १. इंडियन एंटिक्वेरी, खंड ११, पृ० २५८ । २. सन् २१० ई. के लगभग का उसका अभिलेख वहाँ पाया जाता है ( एपि• ई० १८, ३१८)। इसके उपरांत राजा पुलोमावि (तृतीय) हुआ था और पुराणों में उसी से इस वंश का अंत कर दिया गया है (बि० उ० रि० सो० का जरनल, खंड १६ ) । और जान पड़ता है कि राजा पुलोमावि तृतीय अपने पूर्वजों के समस्त राज्य का उत्तराधिकारी नहीं हुअा था।