पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/३५६

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( ३२८) है। केवल वीर पुरिसदत्त को राजन् की उपाधि प्राप्त थी। शिलालेखों में चाटमूल द्वितीय के नाम के साथ वही सामंतों- वाली “महाराज" की उपाधि मिलती है। उसने दक्षिणापथ के दक्षिणी साम्राज्य को फिर से स्थापित करने का प्रयत्न किया था और इसका आरंभ उसने एक अश्वमेध यज्ञ से किया था । उत्तर में जो राजनीतिक काम भार-शिव कर रहे थे, वही दक्षिण में इक्ष्वाकु लोग करना चाहते थे। जान पड़ता है कि भार-शिवों का उदाहरण देखकर ही चाटमूल (प्रथम ) ने भी उनका अनुकरण करना चाहा था क्योंकि उत्तर में भारशिव उस समय तक अपनी योजना सफलतापूर्वक पूरी कर चुके थे और उन्होंने मध्यप्रदेश में आंध्र की सीमा तक अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था। उत्तर के साथ इक्ष्वाकुओं का जो संबंध था, उसकी पुष्टि इस बात से भी हो जाती है कि इक्ष्वाकु की रानियों में से एक रानी उज्जयिनी से आई थी। ६ १७२. हम यह मान सकते हैं कि चंद्रसाति सातवाहन के उपरांत सन् २२० ई० के लगभग इक्ष्वाकु वंश ने साम्राज्य स्थापित करने का विचार किया था। इनकी तीन पीढ़ियों ने १. एपिग्राफिया इंडिका, खंड १८, पृ० ३१८ । राजा वासिठिपुत समि (स्वामिन् ) चंडसातिवाला शिलालेख उसके राज्य-काल के दूसरे वर्ष में उत्कीर्ण हुश्रा था और उस पर तिथि दी है म १, हे २, दि १। मि० कृष्ण शास्त्री इसका अर्थ लगाते हैं-मार्गशीर्ष बहुल प्रथमा, और हिसाब लगाकर उन्होंने निश्चय किया है कि वह शिलालेख दिसंबर सन् २१० ई० का है। मिलान करो पुराणों में दिया हुश्रा इस राजा का तिथि-काल सन् २२८-२३१ ई०, जिसका विवेचन बिहार- उड़ीसा रिसर्च सोसाइटीके जरनल खंड १६, पृ० २७६ में हुआ है। उक्त शिलालेख पिठापुरम् से नौ मील को दूरी पर कोडवलि नामक स्थान में है ।