१२ ) "नैव मूर्द्राभिषिक्तास्ते”। ऐसी अवस्था में क्या यह कभी संभव है कि पुराण उन मूर्धामिषिक्त राजाओं का उल्लेख छोड़ देंगे जो वैदिक मंत्रों और वैदिक विधियों के अनुसार राजसिंहासन पर अभिषिक्त हुए थे और जिनमें ऐसे कई राजा थे जिन्होंने आर्यों की पवित्र भूमि में एक दो नहीं बल्कि दस दस अश्वमेध यज्ञ किए थे ? यह एक ऐसा महत् कार्य है जो कलियुग के किसी ऐसे प्राचीन राजवंश ने नहीं किया था, जिसका पुराणों ने वर्णन किया है। भला ऐसा महत्त्वपूर्ण कार्य करनेवालों का उल्लेख पुराणों में किस प्रकार छूट सकता था ? शुंगों ने दो अश्वमेध यज्ञ किए थे और शुंगों का उल्लेख पुराणों की उस सूची में है जिसमें सम्राटो के नाम दिए गए हैं। शातवाहनों ने भी दो अश्मेध यज्ञ किए थे और पुराणों में उनका भी उल्लेख है। इसलिये जिन भार-शिवों ने दस अश्वमेध यज्ञ किए थे, वे किसी प्रकार छोड़े नहीं जा सकते थे। और वास्तव में वे छोड़े भी नहीं गए हैं। ६११. वाकाटकों के लेखों में एक भार-शिव राजा का नाम आया है; और वहाँ उसका उल्लेख इस प्रकार किया गया है- "भारशिवोमेके (अर्थात् भार-शिव राज- भार-शिव नाग थे वंश के ) महाराज श्री भवनाग" । 'पुराणों में आंधों और उसके समकालीन तुपार मुरुंड राजवंश (अर्थात् वह राजवंश जिसे आजकल हम लोग सम्राज्य-भोगी कुशन कहते हैं ) के पतन के उल्लेख के उपरांत यह वर्णन आता है कि किलकिला के तट पर विंध्य-शक्ति का उत्थान हुआ था। यह उल्लेख बुंदेलखंड के वाकाटक राजवंश के संबंध में है और किलकिला वास्तव में पन्ना के पास की एक नदी है। १ राय बहादुर ( अब स्व०) बा० हीरालाल का मैं इसलिये
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