पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/३७०

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( ३४२ ) ६१७८. पल्लवों ने स्वभावतः साम्राज्यभोगी वाकाटकों के राज-चिह्न धारण किए थे और यह बात उनकी मोहर (S. I. I. २.५२१ ) से भी और दक्षिण भारत के पल्लव राज चिह्न साम्राज्य-चिह्नों के परवर्ती इतिहास से भी सिद्ध होती है (६६१ और पाद-टिप्पणियाँ तथा ८६)। पल्लवों की मोहर पर भी गंगा और यमुना की मूर्तियाँ अंकित हैं और इन मूर्तियों के संबंध में हम जानते हैं कि ये वाकाटकों के राज-चिह्न हैं। मकर तोरण भी कदाचित् दोनों में समान रूप से प्रचलित था। शिव का नंदी या बैल भी दोनों में समान रूप से रहता था, जिसका मुँह बाईं ओर होता था और जो स्वयं दाहिनी ओर होता था । ६ १७६. पल्लवों और वाकाटकों में कभी कोई संघर्ष नहीं हुआ था । आरंभिक पल्लवों ने कभी अपने सिक्के नहीं चलाए थे। दूसरे राजा शिवस्कंदवर्मन् ने एक धर्म-महाराजाधिराज नई राजकीय उपाधि का प्रचार किया था । वह अपने आपको धर्म-महाराजाधिराज कहने लगा था, जिसका अर्थ होता है-धर्म के अनुसार महा- १. एपिग्राफिया इंडिका, खंड ७, पृ० १४४ में और रुद्रसेन के सिक्के (६ ६१ और ८६) में पल्लव, मोहर पर देखो-मकर का खुला हुश्रा मुँह । २. देखो एपिग्राफिया इंडिका, खंड ८, पृ० १४४ में यह मोहर और इस ग्रंथ के दूसरे भाग में दिए हुए वाकाटक सिक्कों के चित्रों में बना हुश्रा नंदी। परवर्ती पल्लव अभिलेखों में यह नंदी बैठा या लेटा हुअा दिखलाया गया है।