(३४३ ) राजाओं का भी अधिराज । इससे पहले सातवाहनों ने कभी इस उपाधि का प्रयोग नहीं किया था। यह उपाधि उत्तर की ओर से लाई हुई थी अथवा कुशन लोग जो अपने आपको "देवपुत्र शाहा- नुशाही" कहते थे, उसी का यह हिंदू संस्करण था अथवा उसी के जोड़ की यह हिंदू उपाधि थी। पल्लव राजा अपने आपको देवपुत्र नहीं कहता था, बल्कि उसका दावा यह था कि मैं सनातनी धर्म अथवा सनातनी सभ्यता का पक्का अनुयायी हूँ; और यह बात हिंदू राष्ट्रीय संघटन के नियम के बिलकुल अनुरूप थी। दैवपुत्र के स्थान पर उसने "धर्म" रखा था। यहाँ यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि इक्ष्वाकुओं ने कभी इस उपाधि का प्रयोग नहीं किया था, बल्कि वे लोग पुरानी हिंदू शैली के अनुसार अपने पुराने स्वामी सातवाहनों की तरह अपने आपको केवल "राजन्" ही कहते थे । इस प्रकार हम देखते हैं कि पल्लवों ने आरंभ से ही उत्तर भारत की साम्राज्य-वाली भावना के अनुसार ही सब कार्य किए थे। शिवस्कंद वर्मन् प्रथम के जीवन काल में अथवा उसकी मृत्यु के उपरांत तुरंत ही जब विंध्यशक्ति की आर्यावर्त्तवाली शाखा ने साम्राज्य पद प्राप्त किया था, तब भी यही धर्म के अनुसार सर्व-प्रधान शासक होने का विचार और भी अधिक विस्तृत रूप में देखने में आता है । समस्त भारत के सम्राट १. एक इक्ष्वाकु अभिलेख (एपि० ई०, खंड २०, पृ० २३) में तीनों राजाशों को "महाराज" कहा गया है । यह अंतिम उल्लेखों में से एक है। कदाचित् उस समय उनकी स्वतंत्रता नष्ट हो गई थी। पहले वे लोग "महाराज". ही थे । इक्ष्वाकुत्रों में सबसे पहले वीरपुरु- षदत्त ने ही "राजन" की उपाधि धारण की थी। उसका पुत्र केवल "महाराज" था।
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