(३४४) का वही धर्म था जिसका महाभारत में पूर्ण रूप से विधान किया गया है। जब मुख्य वाकाटक शाखा ने सम्राट की उपाधि धारण की, तब पल्लव-वंश ने स्वभावतः "महाराजाधिराज" की पदवी का प्रयोग करना छोड़ दिया। हम लोगों के समय में दक्षिण भारत में साम्राज्य की शैली ग्रहण करनेवाला शिवस्कंद वर्मन् पहला और अंतिम व्यक्ति था । यह बात स्वयं समुद्रगुप्त के शिलालेख से ही प्रकट होती है कि उससे पहले जो शिवस्कंद वर्मन् का अंत हो चुका था, क्योंकि उसने अपने शिलालेख में विष्णुगोप को कांची का शासक लिखा है । इस प्रकार शिवस्कंद वर्मन् का समय आवश्यक रूप से सम्राट प्रवर- सेन प्रथम के शासन-काल में पड़ता है। प्रवरसेन प्रथम के समय से ही पल्लव राजा लोग धर्म महाराज कहलाते चले आते थे और पहले गंग राजा को, जो प्रवरसेन के समय में गद्दी पर बैठाया गया था, धर्म-अधिराज की उपाधि का प्रयोग करने की अनुमति दी गई थी (६ १६०)। धर्म-महाराज की उपाधि केवल दक्षिणी भारत में पल्लव और कदंब राजा ही धारण करते थे और वहीं से यह उपाधि सन् ४०० ई० से पहले चंपा ( कंबोडिया) गई थी। १. देखो कीलहान की Southern List. एपिग्राफिया इंडिका, खंड ७, पृ० १०५। २. हम देखते हैं कि चंपा ( कंबोडिया ) में राजा भद्रवर्मन् यह उपाधि धारण करता था । देखो श्रार० सी० मजुमदार कृत Champa (चंपा), तीसरा खंड, पृ० ३ ।
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